Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 22
________________ जैन पदसंग्रहभवि० ॥३॥ जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी । तृपत होत भूधर जो अब ये, अंजुलि अम्रतपानकी । भवि० ॥ ४ ॥ १९. राग मलार । अब मेरै समकित सावन आयो ॥ टेक ॥ बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो।।अब मेरै ॥१॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो । बोलै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो | अब मेरे ॥२॥ गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो । साधक भाव अंकूर उठे बहु, जित तित हरष सबायो । अब मेरै० ॥३॥ भूल धूल कहिं मूल न सूझत, समरस जल झर लायों । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो । अब मेरै० ॥ ४ ॥ २०. राग सोरठ। ' __/भगवन्तभजन क्यों भूला रे ॥ टेक ॥ यह १ अन्यकी । २ वर्षाऋतु । ३ विजली। ४ मेघ । ५ जिसमें पानी नहीं चूता है।

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