Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 23
________________ १५ तृतीयभाग 1. संसार रैनका सुपना, तन धन वारि ववूला रे ॥ भगवन्त० ॥ १ ॥ इस जोवनका कौन भरोसा, पावकमें तृणपूला रे ! । काल कुदार लियें सिर ठाड़ा, क्या समझे मन फूला रे ! ॥ भगवन्त० ॥ २ ॥ स्वारथ साथै पाँच पाँव तू, परमारथकों लूला रे ! | कहु कैसें सुख है प्राणी, काम करै दुखमूला रे || भगवन्त० || ३ || मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कंध वसूला रे । भज श्रीराजमतीवर भूघर, दो दुरमति सिर धूला र ॥ भगवन्त० ॥ ४ ॥ २१. राग बिहागरो । म विना न रहै मेरो जियरा ॥ टेक ॥ हेरें री हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा || नेमि विना० ॥ १ ॥ करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत केरूर कैलाधर सियेरा || १ जलका | २ । ३ घासका पूला 1४ लॅगडा । ५ नेमिनाथ । ६ देख री ।७ सहेली - सखी । ८ निकट । ९ क्रूर । १० चंद्र | ११ शीतल ।

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