Book Title: Jainpad Sangraha 03
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 18
________________ १० जन पदसंग्रह लगै म्हांरी भूल भगै जी ॥ टेक ॥ तुमहित हांक विना हो श्रीगुरु, सूतो जियरो काई जगै जी ॥ थांकी ० ॥ १ ॥ मोहनिधूलि मेलि म्हारे माथै, तीन रतन म्हांरा मोह ठगै जी । तुम पद ढोकैत सीस झरी रज, अब ठगको कर नाहिं वगै जी ॥ थांकी ० ॥ २ ॥ टुट्यो चिर मिथ्यात महाज्वर, भगां मिल गया वैद मँगै जी । अंतर अरुचि मिटी मम आतम, अब अपने निजदर्व पगै जी ॥ थांकी ० ॥ ३ ॥ भव वन भ्रमत बढ़ी तिसना तिस, क्योंहि बुझे नहिं हियरा देंगे जी । भूधर गुरुउपदेशामृतरस, शान्तमई आनँद उमगै जी ॥ थांकी० ॥ ४ ॥ १४. राग ख्याल | मा विलंब न लाव पैठाव तेहाँ री, जहँ जगपति पिय प्यारो ॥ टेक ॥ और न मोहि सुहाय कछू अब, दीसे जगत अँधारो री ॥ मा विलंब १ कैसे । २ मेरे । ३ सिरपर । ४ मेरा । ५ प्रणाम करनेसे ६ भाग्यसे । ७ मार्गमें । ८ हृदय । ९ जलता है । १० कर ११ भेज दे । १२ उसी जगह ।

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