Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 9
________________ जनविद्या (iii) पूर्व जन्म में करकण्डु धनदत्त नाम का एक ग्वाला था। उसने एक जैन मुनि से कुछ व्रत लेकर उन्हें निष्ठापूर्वक पाला । एक बार उसने एक सरोवर से कमल का एक बड़ा फूल तोड़ा एवं एक देव व अन्य व्यक्तियों के कहने पर उसने उस फूल से भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा की । पूजन के समय उसके हाथ गन्दे थे । जिनेन्द्र-पूजा के फलस्वरूप वह इस भव में एक प्रतापी राजा तो बना परन्तु हाथ गन्दे होने के कारण उसके हाथ में खुजली (कण्डु) के दाग बन गये और इसी कारण वह करकण्डु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में एक मुनिराज शीलगुप्त के दर्शन करने हेतु जाते समय एक घटना के कारण उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने बारह भावनाओं का चिन्तन किया, तत्पश्चात् उसने मुनिराज से धर्मश्रवण किया, गृह, राज्य आदि त्यागकर निर्ग्रन्थ मुनि की दीक्षा ली एवं घोर तपस्या कर परिणामस्वरूप सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया । मुनिश्री कनकामर ने अपने ग्रन्थ 'करकंडचरिउ' में बारह भावनाओं एवं सम्यग्दर्शन के स्वरूप का जो सुन्दर सजीव चित्रण किया है वैसा सुन्दर चित्रण जैन साहित्य में विशेषकर अपभ्रंश भाषा में, अन्यत्र कम ही मिलता है । 'करकंडचरिउ' एक उच्चकोटि का काव्य है जिसमें महाकाव्य के सभी गुण सन्निहित हैं। शृंगार रस व वीर रस की कथा शान्त रस में परिवर्तित होकर अन्त में आध्यात्मिक कथा का रूप ले लेती है। वास्तव में इस प्रकार का परिवर्तन जैन कथाओं का मुख्य आधार है जिसका दिग्दर्शन हमें खुजराहो, हलेविड आदि के जैन मन्दिरों पर उपलब्ध वास्तुकला में भी होता है जहाँ सौन्दर्य में जलन नहीं, शीतलता है, विलासिता नहीं, पावनता है जिसे देखकर, पढ़कर वैराग्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। किसी भी विषय की सही जानकारी जीवन को गलत नहीं, सही मोड़ देती है । इस प्रकार के अध्ययन व मनन से व्यक्ति मानव की मूल एवं प्रमुख मनोवृत्तियों को सही रूप में समझ सकता है एवं अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है । डॉ. गोपीचन्द पाटनी सम्पादक U

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