Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 73
________________ जनविद्या संवाद (7.15) आदि ऐसे संवाद हैं जो छोटे होते हुए भी गुणवत्ता की दृष्टि से अनेक पहलुओं को स्पर्श करते हैं। इस प्रकार करकण्डचरिउ और पद्मावत के शिल्पविधान का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह कहना असंगत नहीं होगा कि पद्मावत पर करकण्डचरिउ का प्रभाव परिलक्षित है। निःसंदेह अपभ्रंश काव्य हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य के वस्तुवर्णन और वस्तुसंगठन में उपजीव्य रहे हैं । जनता के सन्निकट पहुँचने के लिए उनमें लोकतत्त्वों का भरपूर प्राधार लिया गया है । उन पर अपने-अपने धर्म का रंग चढ़ाकर कवियों ने उन्हें यथास्थान और यथानुकूल परिवर्तित किया और उन्हें अधिकाधिक आकर्षक बना दिया । अलौकिक तत्त्वों के समावेश ने उनकी उद्देश्यप्राप्ति को और भी सरल कर दिया । अपने-अपने सिद्धान्तों को लोकप्रिय बनाने के लिए कालानुसार जनभाषा के सहज प्रयोग ने उनकी शैली को और अधिक सशक्त बना दिया। प्रस्तुत विषय प्रबन्ध की दृष्टि से बहुत अच्छा है । इस आलेख में हमने उसके कतिपय तत्त्वों पर ही अध्येताओं का ध्यान आकर्षित किया है । - 1. तन चितउर मन राजा कीन्हा । हिय सिंहल बुष पदमिनी चीन्हा । गुरु सुमा जेइ पंथ दिखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा । नागमती यह दुनिया धन्धा । बांधा सोइ न एहि चित बंधा । राघव दूत सोइ संतानू । माया पलाउदीन "सुलतानू ॥ प्रेम कथा एहि भांति विचारहु । बूझि लेहू जो मैं पारहु ।।

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