Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 74
________________ एकत्व-भावना जीवहो सुसहाउ रण अस्थि को वि, गरयम्मि पडतउ घरइ जो वि । सुहिसज्जण - गंदरण - इट्ठभाय, ण वि जीवहो जंतहो ए सहाय । रिणय जणणि जणणु रोवंतयाई, जीवें सहुँ ताई ण पउ गया। घणु ण चलइ गेहहो एक्कु पाउ, एक्कल्लउ भुंजइ धम्मु पाउ । अर्थ-जीव का ऐसा कोई सहायक नहीं है जो उसे नरक में गिरने से बचा ले । जीव के जाते समय मित्र-पुत्र, स्वजन-प्रियजन, भ्राता ये कोई भी सहायक नहीं होते । माता-पिता रोते हैं पर जीव के साथ एक पग भी नहीं जाते । धन भी घर के बाहर एक पग भी साथ नहीं जाता । जीव अकेला ही पुण्य (धर्म) व पाप का फल भोगता है। करकण्डचरिउ 9.9

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