Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 78
________________ 64 . जनविद्या . से पराङ्मुख बनाता हुआ, महिलाओं के समूह को तृण के समान गिनता हुआ, श्रवणों को प्यारी वाणी सुनाता हुआ, चलायमान चपल मन को स्थिर करता हुआ, करकण्ड चलते-चलते नन्दनवन में पहुंचा। उसने उस विशाल नन्दनवन को देखा जो किन्नरों और खेचरों के कोलाहल से परिपूर्ण था। फिर उसने उस उपवन में उन शीलों के निधान (शीलगुप्त) मुनि को देखा जो क्रोधादि कषायरूप अग्नि को बुझाने के लिए मेघ थे, जिनका शरीर ज्ञान की किरणों से विस्फुरायमान था, जो कामरूपी किरात के हृदय के शल्य थे, जो मोहरूपी भट को पराजित करने वाले मल्ल थे। जो दशलक्षणधर्म के निवास तथा परसमय (मिथ्यामत) रूपी कूड़े-करकट के हुताश थे । जो तपश्रीरूपी कामिनी के वदन में अनुरक्त थे, जो कर्मबन्ध व कर्मों के बन्धक हेतुओं से रहित थे, जो जन्म और मरण का नाश करनेवाले थे, दो प्रकार के संयम के निधान थे, तथा शिवकामिनी के मुख के उत्तम तिलक थे । स्पष्ट ही यहाँ करकण्डु और मुनि शीलगुप्त दोनों का स्वरूप इस प्रकार अंकित किया गया है कि गुरु और शिष्य की प्रकृति और प्रवृत्ति आमने-सामने लाई जा सके। सच तो यह है कि जब तक प्यास जागृत न हो जल का महत्त्व ही नहीं होता। इसीलिए पहले करकण्डु में इस तरह की प्यास जगाई गयी है जो शीलगुप्त के सामने पहुँचते-पहुंचते उसे परम आकुल रूप में प्रस्तुत कर रही है। करकण्डु अकेले तो नहीं थे, उनके साथ बहुत से और भी अनुप्रेक्षक थे, अतएव उदार भावना से प्रेरित होकर उन्होंने मुनि शीलगुप्त से उस परमधर्म की जिज्ञासा की जो अज्ञान और दुःख समूह को नष्ट कर सके, अनुपम मोक्ष सुख में वृद्धि कर सके और लोकमात्र के लिए हितकारी हो । - जीवराशि मात्र के प्रति कल्याण की भावना जहां करकण्डु को विशाल हृदयवाला बना देती है वहीं दूसरी ओर मुनि शीलगुप्त की दृष्टि में उसे महत्त्वपूर्ण । वे उसे स्पष्टरूप से परमधर्म का उपदेश देने लग जाते हैं। वे कह उठते हैं-'धर्मरूपी वृक्ष दो प्रकार का होता है-श्रावकधर्म और मुनिधर्म। जब यह धर्मरूपी वृक्ष व्रतरूपी जल से सींचा जाता है तब वह भली प्रकार से बढ़ता है । इसके लिए मुनि ने उन्हें दो प्रकार के व्रतों का उपदेश दिया-गृहस्थव्रत और मुनिव्रत । गृहस्थव्रत को अणुव्रत और मुनिव्रत को उन्होंने महाव्रत बतलाया। अणुव्रत ही अत्यन्त सूक्ष्मरूप में महाव्रत कहे जाते हैं । गृहस्थ पहले अणुव्रत के पालन में ही लगे । इनके सम्यक् पालन से सद्विचार और सदाचार की पुष्टि होती है । ये व्रत हैं-अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये पांच अणुव्रत हैं। इन्हीं के अनुसार गृहस्थों के कुछ और भी व्रत बताये गये हैं जिन्हें शिक्षाव्रत कहा गया है-समता, संयमभावना, आर्त और रौद्र ध्यानों का परिहरण, उपवास, पात्र को चतुर्विधदान-जीवों पर दया, ज्ञान-दान, रोगियों की सेवा, भोजनदान और अन्त में मन से सल्लेखना द्वारा प्राणविसर्जन । शीलगुप्त मुनि का कहना है कि जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें मुक्तिरूपी वधू की अभिलाषापूर्ति का सुख प्राप्त होता है।" ये अणुव्रत और शिक्षाव्रत गृहस्थ से सम्बद्ध हैं । इनका पालन मनुष्य की बाह्य और आभ्यन्तर शुद्धि के लिए परम आवश्यक है । जैसे करकण्डु के चरित्र के इस अन्तिम खण्ड

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