Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 75
________________ करकंडचरिउ की अध्यात्म-चेतना ___-डॉ० सूर्यनारायण द्विवेदी अपभ्रंश साहित्य को प्राकार देने में अन्य धर्मावलम्बियों की भांति जैन-रचनाकारों ने भी विशेष प्रयत्न किया था। यह प्रयत्न कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा है । इसमें जहां एक ओर लोकाश्रित कथानकों के माध्यम से अपनी बात को जन-सामान्य तक पहुंचाने का प्रयत्न दिखलाई देता है वहीं धर्म और प्राचार की दृष्टि से मानवजीवन को उदात्त रूप देने की लालसा भी। ऐसा साहित्य दो रूपों में मिलता है-एक तो प्रबन्धकाव्य के रूप में या फिर मुक्तक, रूपक और स्फुट काव्य के रूप में। प्रबन्धकाव्य भी दो श्रेणी के मिलते हैं -पुराण-साहित्य या चरितसाहित्य । पुराणों में भी चरित्र ही वर्णन के विषय रहे किन्तु उनका दृष्टिकोण उन पौराणिक महापुरुषों के जीवन को उद्धृत करना था जो तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव और बलदेव के रूप में सामने आये । चरित काव्यों में उनकी दृष्टि इससे अलग चरित्रों की ओर गयी है जिनमें जन-धर्म-प्रवर्तित अध्यात्मचेतना को कथानकों के माध्यम से उजागर किया गया है । ऐसे कथानक भी लोक में किसी न किसी रूप में या तो ऐतिहासिक क्रम में उपलब्ध थे या फिर जनता के बीच प्रादृत । करकण्डचरिउ इसी तरह का एक प्राध्यात्मिक काव्य है जिसकी प्रकृति वर्णनप्रधान किन्तु जिसका प्रतिपाद्य पंचकल्याण और दूसरे इसी प्रकार के व्रतों, उपवासों और तपस्यानों के माधार पर मानबीय चेतना के शुद्धिकरण की महत्ता से सम्बद्ध है। करकण्डचरिउ का कथानक चम्पापुरी के राजा घाड़ीवाहन और रानी पद्मावती के पुत्र करकण्डु से सम्बद्ध है । बालक के हाथ में खुजली होने के कारण उसका नाम करकण्डु

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