Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 37
________________ जनविद्या त कहिउ गरिंदहो महियलि चंदही घरिणिएँ महो कुसुमत्तई। गंगाजलवाहे सुठु अगाहे पाविय एह मंजूसई । सा वि जोइया णिवेण, गाणसायरं गएण । तम्मि दिटु हेमकंतु, अंगुलीउ णामवंतु । ताव तेण सुंदराई, वाइयाई अक्खराई । एह बाल रायधूव, कामगेहु जा वि हूव । कउसंबियरायहो पसरियछायहो वसुपालहो पउमावइ दुहिय । इय मण्णिवि राएँ कयप्रणुराएँ सा खणि परिणिय दुहमहिय । 1.7 - अभिप्राय और वर्णन-रूढ़ियाँ साहित्य के प्रमुख तत्त्व हैं । इनका संबंध लोकमनोविज्ञान और लोकरुचि से है । ये काव्य की प्रक्रिया में भी योगदान करते हैं और फलप्राप्ति में भी। इनसे काव्य का प्रमुख प्रयोजन लोकमंगल घटित होता है, विस्मय से ग्रहण आकर्षक और आनंदप्रद हो जाता है । यह विस्मय साधारणीकरण की प्रक्रिया को अत्यन्त 'सरल बना देता है । इनसे कथानक में प्रवेग भी आता है और विश्रांति भी घटित होती है । जीवन के बदलाव में श्रद्धा और दृढ़ता ही उत्पन्न नहीं होती, रमणीयता भी आ जाती है। लोक की एकता के तो ये प्रमुख साधन हैं और संस्कृति के विकास के ऐतिहासिक साक्ष्य । राष्ट्र के भावात्मक एकीकरण में इनकी माज भी सार्थकता है। 1. कला के वैचारिक और सौंदर्यात्मक पहलू, आब्नेरजीस, पी. प. हा. 1984, पृ. 144।

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