Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ जैनविधा ___41 करकंडुचरित में 15 सर्ग हैं । इसकी रचना विक्रम संवत् 1611 में जवाक्षपुर के आदिनाथ चैत्यालय में हुई थी। इसमें शुभचन्द्र के सहायक उनके शिष्य भट्टारक सकलभूषण थे।24 इसकी प्रति नागौर के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध है ।25 ग्रन्थ की अंतिम प्रशस्ति इस प्रकार है "श्रीमलसंधे कृति नंदिसंघे गच्छे बलात्कार इदं चरित्रं । पूजाफलेखं करकण्डराज्ञो भट्टारक श्री शुभचन्द्रसूरिः ॥ .. ........ .... ......... ............. ........ श्रीमत्सकलभूषेण पुराणे पाण्डवे कृतं ॥ साहायं येन तेनाऽत्र तदाकारि स्वसिद्धये ॥" 26 करकण्डरास-राजस्थानी रास शैली में उक्त काव्य की रचना ब्रह्मजिनदास ने की। डॉ. प्रेमसागर ने करकण्डु-रास के पंचायती मन्दिर देहली में होने की सूचना दी है ।27 इनके अतिरिक्त जिनरत्नकोश28 में निम्न करकंडुचरितों का उल्लेख मिलता है। ... करकण्डुचरित्र-इसके लेखक जिनेन्द्रभूषण भट्टारक ब्रह्म हर्षसागर के पुत्र थे। संस्कृत पद्य में लिखे गये इस काव्य में 4 अध्याय और 900 श्लोक हैं । पीटरसन ने अपनी चतुर्थ रिपोर्ट में संख्या 1407 पर इसका उल्लेख किया है। करकंडुचरित्र-संस्कृत भाषा में लिखे गये इस काव्य के लेखक ब्रह्म नेमिदत्त हैं, जो मल्लिभूषण के शिष्य थे । इसकी प्रति दिल्ली के पंचायती मन्दिर में है। ___ करकण्डुचरित्र-प्रभाचन्द्रदेव रचित इस ग्रन्थ की प्रति ईडर (गुजरात) के ग्रन्थभण्डार में उपलब्ध है। करकंडचरित्र-श्रीदत्त पण्डित रचित इस काव्य के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख नहीं मिलता। :: ..... : ........................... .. ... उक्त काव्यग्रन्थों के अतिरिक्त आराधना कथाकोष या कथाकोषों के प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत संस्करणों में करकंडु की कथा उपलब्ध होती है । वस्तुतः यह विषय एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध की अपेक्षा रखता है। -तिलोयपण्णत्ति 4/1022 1. “कम्माण उवसमेण य गुरुवदेसं विणा वि पावेदि । सण्णाणसवप्पगमं जीए पत्तेयबुद्धी सा ॥" 2. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, (सन्दर्भ-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष-भाग 3)

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112