Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 61
________________ जनविद्या 47 है। करकण्डु ने वहां दो लयण और बनवायीं (5.13) । इस तरह तीन लयण-समूह की शोभा का वर्णन करकण्डु में मिलता है जो आज भी सही सिद्ध होता है । धारा का सम्बन्ध उस जलधारा से रहा है और 'शिव' या तो कल्याणसूचक है या उसका सम्बन्ध किसी शिवमन्दिर से रहा होगा । प्रथम गुफा के निर्माण का जहां तक प्रश्न है कनकामर की सूचना के अनुसार नील-महानील विद्याधरों ने उसका निर्माण कराया था। सम्भावना ऐसी व्यक्त की गई है कि शिलाहार वंश का प्रारम्भ नील-महानील विद्याधरों से हुआ होगा। इसके मूल वंशज के रूप में जीमूतवाहन का भी नाम लिया जाता है। इन्हें तगरपुराधीश्वर भी कहा जाता है। कोंकण के इन शिलाहारों का बेलगांव और कोल्हापुर तक शासन था। उनमें से प्रसिद्ध जैन राजा गण्डरादित्य (1007-9 ई.) ने इरुकुडी में एक जिनालय बनवाया । उसके सेनापति निम्बदेव ने भी अर्जरिका में रूपनारायण जैन मन्दिर का निर्माण कराया जो आज वैष्णवों के अधिकार में है । निम्बदेव पद्मावती का भक्त था और माणिक्यनन्दी का शिष्य था । इसी प्रकार बोप्पण व भोज द्वितीय (1165-1205 ई.) भी अनेक जिनालयों के निर्माता रहे हैं। विशालकीर्ति पण्डितदेव व शब्दार्णवचन्द्रिकाकार सोमदेव इन्हीं के शासनकाल में कार्यरत थे । यह वंश तीर्थंकर पार्श्वनाथ और पद्मावती का भक्त था। कनकामर के समय में मन्त्र-परम्परा के प्रति श्रद्धा अधिक बढ़ चुकी थी। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही दी गई स्तुति में जिनेन्द्र को 'मंताणबीज' कहा गया है । मातंग और करकण्डु ने राक्षस को मन्त्रोच्चारणमात्र से वश में कर लिया (2.12)। मन्त्र, तन्त्र, वशीकरण और सुशोभनीय यन्त्र जैन परम्परा में पूरी तरह प्रविष्ट हो चुके थे (2.9)। जैन धर्म में मन्त्रतन्त्र की शक्ति को पौद्गलिक माना गया है और इसलिए उसे मोक्षप्राप्ति में साधन के रूप में स्वीकार नहीं किया गया (रयणसार, 109)। - करकण्डचरिउ में कथानकों की भीड़ पा जाने से कवि किसी विषय पर जम नहीं सका । इसलिए संस्कृति के पन्ने भर नहीं पाये । कथानक-रूढ़ियों के बीच घूमती हुई करकण्डुकथा सामाजिक परम्परामों को अधिक समाहित नहीं कर सकी। मात्र वैवाहिक परम्परा का उल्लेख संक्षेप में मिलता है । कलश पर दीपक रखकर स्वागत करने की उस समय प्रथा थी (3.5) । वर के नगर में वधु को सपरिवार बुला लिया जाता, उसका समुचित स्वागत होता, घर पर तोरण लगाये जाते, हाथों में कंकण बांधे जाते, विविध वाद्य बजाये जाते, गीत गाये जाते, नृत्य होते, वर-वधु एक दूसरे के मुखपट उघाड़ते, अग्नि के समक्ष भट्ट मन्त्र पढ़ते, सात भांवरे होती, वर अपना हाथ वधु के हाथ में देता व दाहिने हाथ से शपथ आदि विधियां करता (3.8)। बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी । वर को यथाशक्ति दहेज भी दिया जाता था (7.8)। धर्म और दर्शन के भी सन्दर्भ अधिक समृद्ध नहीं हैं। जैन-धर्म में श्रावक की परिभाषा यथासमय परिवर्तित होती रही है। कभी वह तत्त्वश्रदान के साथ जुड़ी, कभी

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