Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 63
________________ करकंडचरिउ और पद्मावत का शिल्प-विधान -डॉ० पुष्पलता जैन करकंडचरिउ मुनि कनकामर की अपभ्रंश कृति है जिसे उन्होंने 11 वीं शताब्दी के मध्य रची थी । कवि ने इसमें प्रत्येकबुद्ध करकडु का जीवन चित्रित किया है। जैन परम्परा में उन्हें पार्श्वनाथकालीन माना जाता है पर उपलब्ध साहित्य कदाचित् इसे स्वीकार करने में हिचकिचाता है। उनका कथानक उत्तराध्ययन के उल्लेख से प्रारम्भ होता है और समयसुंदरगणि (15 वीं शती) तक उसका विकास हो जाता है । जनेतर साहित्य को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह कथा शायद लोककथा रही होगी जिसे सभी सम्प्रदायों ने अपनेअपने ढंग से चित्रित कर लिया है। इसके बावजूद विद्वानों ने इस कथा पर बौद्धधर्म का प्रभाव अधिक बताया है परन्तु यह सही इसलिए नहीं लगता कि इस कथानक ने बौद्ध परम्परा की अपेक्षा जैन परम्परा के साहित्य को अधिक समृद्ध किया है। समृद्ध ही नहीं, कथानक में एकाधिक मोड़ पाये हैं जो बौद्ध कथा में नहीं मिलते। व्यक्ति और साहित्य सामाजिकता के परिकर से प्राबद्ध रहते हैं। अपनी धार्मिकता प्रोढ़े रहने के बावजूद इतर धर्मों से प्रभावित हुए बिना उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न खड़ा हो जाता है । जैन धर्म और साहित्य ने जहां एक ओर दूसरे धर्म और साहित्य से बहुत कुछ ग्रहण किया है वहीं दूसरी ओर उन्हें दिया भी कम नहीं है। आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया धर्म और

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