Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ जनविद्या पांच सौ परिवारों का रहना और निर्ग्रन्थों के लिए विहार का निर्माण कराना स्पष्ट सूचित करता है कि श्रीलंका में लगभग तृतीय- चतुर्थ शती ई. पू. में जैनधर्म अच्छी स्थिति में था। बाद में तमिल श्राक्रमण बाद वट्टगामणि अभय ने निगण्ठों के विहार आदि सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिये ( महावंश 33.79 ) । महावंश टीका (पृ. 444 ) के अनुसार खल्लाटनाग ने गिरि निगण्ठ के विहार को स्वयं नष्ट किया और उसके जीवन का अन्त किया । 46 करकण्डचरिउ में सिंहल द्वीप का विवरण कोई नया नहीं है। उसके पूर्व भी हरिवंशपुराण, पउमचरिउ आदि ग्रन्थों में इसका वर्णन द्रष्टव्य है । विद्याधरों (जनों ) का आवागमन वहां होता ही रहता था। श्रीलंका की किष्कंधा नगरी के पास त्रिकूटगिरि पर जैन मन्दिर था जिसे रावण ने मंदोदरि की इच्छापूर्ति के लिए बनवाया था। कहा जाता है, पार्श्वनाथ की जो प्रतिमा श्राज शिरपुर (वाशिम) में रखी है वह वस्तुतः श्रीलंका से मालीसुमाली ले आये थे ( विविध तीर्थकल्प, पृ. 93 ) । करकण्डचरिउ के अमितवेग और सुवेग अथवा नील महानील सम्भवतः माली-सुमाली हों । जो भी हो, पर यह निश्चित है कि श्रीलंका में जैनधर्म का अस्तित्व वहां बौद्धधर्म पहुँचने के पूर्व था और बाद में भी रहा है। तमिलनाडु के तिरंरप्परकुरम् (मदुरं जिला ) में प्राप्त एक गुफा का निर्माण भी लंका के एक गृहस्थ ने कराया था, यह वहां से प्राप्त एक ब्राह्मी शिलालेख से ज्ञात होता है । ' करकण्डु महाराज दक्षिण की यात्रा के बीच तेरापुर रुके जहां उन्होंने पश्चिमी दिशावर्ती पहाड़ी में गुफा देखी । उसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान थी । यह गुफा सहस्र स्तम्भवाली थी। तेरापुर के राजा शिव के साथ अवलोकन करते हुए यह भी पाया कि एक सुन्दर हाथी सरोवर से कमल लाकर वामी की प्रदक्षिणा और जलसिंचन कर पूजा करता है । करकण्डु ने उस वामी को खुदवाया जिसमें से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की फणावली - युक्त प्रतिमा निकली। फणों की संख्या का यहां कोई उल्लेख नहीं ( 49 ) । दुन्दुभि, भामण्डल, दो चामर और सिंहासन का वर्णन अवश्य मिलता है । उसे उत्सवपूर्वक लयरण में प्रतिष्ठित कर दिया गया । करकण्डु ने सिंहासन के ऊपर एक गांठ देखी जिसे देखकर सूत्रधारों ने कहा कि उसे जलवाहिनी रोकने के लिए लगायी गई है। गांठ को तोड़ने पर जलधारा का भयंकर प्रवाह निकला भी । देव ने प्रकट होकर उसे बन्द किया । इसी संदर्भ में यह भी बताया गया यह प्रतिमा पिछले साठ हजार वर्षों से वहां अक्षत बनी रही है ( 4.17 ) । कि तेरापुर गुफाओं के संदर्भ में डॉ० हीरालालजी ने अच्छा प्रकाश डाला है । ये वही गुफाएँ हैं जो उस्मानाबाद के समीपवर्ती गुफा 'धाराशिव' के नाम से जानी जाती | डॉ० फ्लीट ने इन्हीं को 'तगरपुर' नाम से उल्लिखित किया है जो तेरापुर होना चाहिए । वर्तमान में भी इस गुफा का क्षेत्र काफी बड़ा है। इसमें कुल चौसठ खम्भे हैं, शाला के दोनों मोर आठ-आठ कमरे हैं और गर्भगृह बीस फुट लम्बा श्रौर पन्द्रह फुट चौड़ा है जिसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की पांच फुट की काले पाषाण की पद्मासन मूर्ति विराजमान है । गुफा के भीतर अभी भी विशाल जलकुण्ड है । उसी के पास सप्तफणी पार्श्वनाथ प्रतिमा भी रखी हुई है। कमरे के भूतल में दो छिद्र भी हैं जिनका सम्बन्ध कुण्ड से है । शाला के पास भी सजल छिद्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112