Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 35
________________ जनविद्या 21-- संसग्गु कियउ सहुँ चेडियई कुडिलेण य वणिणा जाम तहि । ता जायउ गम्भु खणेण तहे संजणिय मणोरह सयल जहि ॥ 2.14 ता तुरिउ ताएँ सो वणिउ उत्तु, महो एक्कु वयणु तुहँ करि णिरुत्तु । एह रायहो वरहिणिमंसुएण, महो दिज्जइ जीवमि णिच्छएण। ता गयउ तुरंतउ वणिपहाणु, तहो बरहिणि सम्मुहुँ लऽ ठाणु । सो बरहिणु ल्हिक्किवि जीउ प्रवर, घरे जाइवि तें तहे विष्णु पवर । सो सणिविताएँ चडिएं णिवासु, सिहिवइयरु प्रक्खिउ सयलु तासु । सो गरवइ रुट्ठउ वणिवरासु, मारणहँ समप्पिउ तलवरासु। 2.15. इससे जुड़ा सज्जन-प्रशंसा का प्रकरण है । एक राजा वन में भूखा-प्यासा भटक गया । वहां वणिक् ने उसे तीन मधुर फल दिए । राजा ने उसे अपना मंत्री बना लिया । एक दिन उस वणिक् ने राजा के पुत्र का अपहरण कर लिया और उसके वस्त्राभूषण एक विलासिनी को दे दिए । राजा को इसका पता चल गया । तब राजा ने मंत्री से संतुष्ट होकर कहा-'उन तीन फलों में से एक फल का ऋण ने मतिवर मंत्री का चुका दिया। अन्य दो फलों का ऋण अभी भी है, क्षमा कीजिए।' मंत्री इससे पानी-पानी हो गया और पुत्र लाकर राजा को भेंट कर दिया वाणारसिणयरि मणोहिरामु, अरविंदु पराहिउ अत्थि णाम् । संतोसु वहंतउ णियमणम्मि, पारखिहें गउ एक्कहिं विणम्मि । जलरहियहिँ प्रडविहिं सो पडिउ, तहिं तव्हएँ भुक्खएँ विग्णडिउ । प्रमिएण विणिम्मिय सुहयराइ, तहो दिण्णइ वणिणा फलई ताई। संतुट्ठउ तहो वणिवरहो राउ, घरि जाइवि तहो दिण्णउ पसाउ । उवयार महंतउ जाणएण, वणि णिहियउ मंतिपयम्मि तेण। 2.16 xx x ता एक्कहिं विणि मंतीवरेण, तहो रायहो गंदणु हरिवि तेण । माहरणइं लेविणु विहिकरासु, गउ तुरिउ विलासिणिमंदिरासु । ता केण वि घिठे तुरियएण गरणाहहो अग्गई भणिउ । उपलक्खिउ तुह सुउ देव मई सो गवलइँ मंतिएं हणिउ । 2.17 तं वयणुं सुविण सरलबाहु, संतुट्ठउ मंतिहे घरणिणाहु ।. तिहि फहि मज्झ एक्कहो फलासु, गिरहरियउ रिणु मई मइवरासः ।.... प्रवराह बोणि मज्ज वि खमीस, खणि हुयउ पसण्णव परणिईस । ... परियाणिवि मंतिई रायणेहु, णिवणंदणु अप्पिउ विव्ववेहु । 2.18 जिन-प्रतिमा की अचलता से संबंधित एक वर्णन रूढ़ि तब देखने में आती है जब अमितवेग और सुवेग उसे जिन-स्तुति के लिए पर्वत पर रख देते हैं। जिन की वंदन-भक्ति से लौटने पर जब वे उसे उठाने लगते हैं, तब वह अपने स्थान से चलायमान नहीं होती

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