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करकंडचरिउ का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन
- डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया
मनुष्यगति प्राणी की श्रेष्ठ अवस्था है । इस अवस्था में प्राणी मति, श्रुति, अवधि तथा मन:पर्यय ज्ञान का पूर्ण विकास प्राप्त कर सकता है। इससे भी अगाड़ी जब संयम साधना में प्रवृत्त होकर निवृत्ति की ओर उन्मुख होता है तब ग्राज नहीं तो कल अन्ततोगत्वा एक दिन अवश्य केवलज्ञान को जगाने में समर्थ हो जाता है । इस अवस्था में प्राणी अपने वसुकर्मों को पूर्णतः विनाश कर स्वयं अविनाश रूप में परिणत होता है । मोक्ष पुरुषार्थ तभी चरितार्थ होता है ।
मति र श्रुति ज्ञान के द्वारा वह भव भ्रमण के रूप को समझने का प्रयास करता है । प्राणी जो बाहर से सीखता है उस अर्जित अभिज्ञान को वह दूसरों तक पहुंचाने के लिए प्रातुर उत्कण्ठित रहता है । यही प्रातुरता और उत्कण्ठा उसे अभिव्यक्ति की शक्ति प्रदान करती है । यद्यपि अभिव्यक्ति प्रादमी की स्वयंभू शक्ति है जिसका विकास वह अभ्यास द्वारा सम्पन्न करता है । अभ्यास के प्रभाव में विद्या भी विष हो जाती है— अनभ्यासे विषं विद्या ।
परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बेखरी ये वाणी की चार प्रादिम अवस्थाएँ हैं । 1 'विखरेणु बैखरी' अर्थात् जो अन्तरंग के भाव कण्ठ से निसृत हो बिखर जाएं वे ही बैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेती हैं । आदमी की प्रादिम अभिव्यक्ति काव्यमय रही है । 'कवेरिदं कार्यभावो वा' श्रर्थात् कवि द्वारा जो कार्य सम्पन्न हो, वही वस्तुतः काव्य है । 2 कवि शब्द की कु धातु में प्रच् प्रत्यय जोड़कर व्युत्पत्ति निष्पन्न की गई है । कु का अर्थ है