Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 33
________________ जनविद्या 19 कीरेण णिवारिउ देव घाउ, मा पयहि छंडहि रिणयसहाउ । रणरणाहें तुरयहो सुयछलेण, कसताउणु किउ कोऊहलेण । ता तुरउ तुरंतउ एहयलेण, गउ सायर लंधिवि दूरएण। 8.9 तहि मज्झि णिहालिउ राणएण, किउ ऊहणु ते सहुँ टक्कएण। बोल्लाविउ राएँ रणाम लेवि, ता घोडें जोइउ मुहु वलेवि । .अइबुम्बलु ऊहणु जो किमो वि, सोवष्णु देवि तें किणिउ सो वि। 8.16 हाथी संबंधी अभिप्राय जिन-बिम्ब की सूचना से संबद्ध है । वामी में जिन-बिम्ब नीचे दबा है । एक हाथी सरोवर से कमल लेजाकर वामी में दिये जिन-बिम्ब की पूजा-अर्चना और अभिषेक करता है । उस सेंध और सुगंध से करकंड को उस जिन-बिम्ब को बाहर निकालने की प्रेरणा होती है । अतिशय क्षेत्रों से इस प्रकार के आश्चर्य जुड़े हुए हैं। महावीर क्षेत्र से ग्वाले की गाय का प्राश्चर्य जुड़ा है णिहालिय अच्छहिं जाव वरणम्मि, सुवारण पत्तउ नाव खरणम्मि। ... सरोवरे पोमई लेवि करिदु, समायउ पव्वउ गाई समुदु । । झलाझल कण्णरएण सरंतु, कवोलचुएण मएण झरंतु । सुपिंगललोयण दंतर्हि संसु, चडावियचावसमुण्णयवंसु । दुरेहकुलाई सुदूरे करंतु, दिसामुह सुंडजलेण भरंतु । करेण सरोयसयाई हंरतु, सुमोत्तियदाम सिरेण धरंतु । . तें करिणा लेविण पंकयई कर भरेवि जलेण तुरंतएण । परिदक्खिरण देविण सिंचियउ तें पूजिउ वामिउ भवियएण। 4.6 इससे योनिभेद से व्यवहारभेद की आशंका निरस्त होती है और प्राणिमात्र के साथ समान व्यवहार, अहिंसा का भाव बनता है। साधनसिद्धि से संबंधित अभिप्राय साधनसिद्धि से संबंधित अभिप्राय का विनियोग कवि ने तब किया है जब वह मंत्रियों की ईर्ष्यालु वृत्ति के वर्णन में दत्तचित्त हुआ है । एक ब्राह्मण कुमार एक दिन एक विद्याधरी का आँचल ले पाता है । वह वस्त्र एक वणिक् के माध्यम से राजा के पास पहुंचता है, राजा वैसे वस्त्र की मांग करता है । ब्राह्मण वन में जाकर एक राक्षसी सिद्ध करता है जो कभी व्याघ्री बनकर दूध देती है और कभी बोलता पानी बन जाती है । इस प्रकार रानी और मंत्री के प्रणय और षड्यन्त्र का भंडाफोड हो जाता है और मंत्री निकाल दिया जाता है। इस अभिप्राय का प्रयोग राज्य के अत्याचार के निरास के लिए हुआ है गउ सिवि बाहिरि पट्टणहो सो रयणिहिँ जुण्णएं मढे वसिउ। तहिं पायउ विजाहरिणियर ते देक्सिवि सो मणि उल्लसिउ। 10.18

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