Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 34
________________ जनविद्या तहो अंचले लग्गउ सो खणेण, सव्वाउ पणद्वउ तहो भएण। तं लयउ वणीसें देवि बव्वु, ते अप्पिउ रायही अंसु भन्छ । सो पुच्छिउ राएँ अवर अत्थि, जइ प्राणहि ता तुह वेमि हत्यि । टेवंती कत्ती णिवकरेण, तहि दिट्ठी रक्खसि ताव तेण । जाणेविण रक्खसि बम्हणई भयकंपिर अग्गई तहो भणह ॥ 10.19 मा मारहि सामिय संवरेहि, तं करमि सव्य जं तुहुँ भणेहि । 10.20 xxx घरि णीय गरिदहो बम्हणेण, सा प्रप्पिय वग्धिणि तक्खणेण । 10.21 तें रक्खसि प्राणिय जलु करेवि, बोलाविउ णिवमग्गएँ घरेवि। 10.22 देवी प्राकट्य अभिप्राय का प्रकरण तब उपस्थित होता है जब रतिवेगा देवी से अपने पति का कुशल-क्षेम जानना चाहती है । वह पद्मावती देवी की पूजा करती है और देवी प्रकट होकर गुप्त वृत्तान्त सुनाकर उसे धैर्य बंधाती है । इस अभिप्राय से मनःशुद्धि और भावना की शक्ति का संकेत मिलता है समच्चिवि पूजिवि झायइ जाव, समागय देवय पोमिणि ताव । समंथरलील सकोमलभंगि, कुणंतिय का वि प्रउब्विय भंगि । विणिम्मियत्वसमिति खणेण, सरीरई रत्तिय सुखममेण । करेहि चहिं करंति गुगाल, सपोत्ययभिंग समुद्दमुणाल । सकंलकग्णफुरंतकवोल सणेउरकिंकिणिमेहलरोल। फणीफणपंच सिरेण धरंति, पसण्णिय जिम्मल का वि करंति । महीयलि पायसरोय थवंति, सुहाविएं वाणिएं कि पि चवंति । दिसाह मुहम्मि पसारियधामु, उरम्मि णिवेसियमोतियवामु । वर देमि भणंती देवि खणे रइवेयहे मग्गई गुणभरिय । तुहुँ मग्गि किसोयरि जं हियई तउ कारणे परणिहें प्रवरिय ॥ 7.13 X अणुराएं मउलेवि करजुवलु सिरु गविवि पयत्त प्रणुसरिय ॥ विज्जाहरु सो ण वि पत्थि तहिं तसु तणिय केर जे ण वि धरिय ॥ 7.15 वर्णन रूढ़ियाँ 'खलनिन्दा' संबंधी रूढ़ि 'कउ' में एक उदाहरण के रूप में उद्धृत है। एक गुणसागर वणिक् का एक चेटी से प्रेम हो गया । उसे गर्भ रह गया। उसने राजा के मयूर के मांस की इच्छा प्रकट की। वणिक् ने राजा के मयूर के नाम से मन्य पक्षी का मांस उसे खिला दिया । चेटी विश्वासघात करती है और वणिक् विपत्ति में पड़ जाता है

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