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जैन विद्या
हुउ बाणु णिरत्थउ सो हु जाव, पोमावइ संगरे- पत्त ताव | हे माए माए संगरे सम्झे कि ग्राइय तुहुँ भडनियरमज्झे । सा भइ पुत्त संवरहि चाउ, एह घाडीवाहणु तुज्झ ताउ । 3.19
यहाँ प्रर्थान्तरन्यास-निष्ठ प्रात्मविस्फार और पुनरुक्ति समृद्ध दर्शनीय है । पिता के चेहरे पर एक भाव प्राता है और एक जाता है, पुत्र का समाता है | कैसा रमणीय विरोध है ।
विस्मय - विस्तार मन फूला नहीं
रानी के दोहद के रूप में एक अन्य अभिप्राय से तब परिचय होता है जब कवि इस हर्ष प्रसून को कुटिल कीटों से छिपे छिपे कुतरते दिखाने का उपक्रम करता है । रानी गर्भगौरव के सुख का संवरण नहीं कर पा रही है और असमाधेय देखकर पीड़ित प्रतिस्खलित भी है
तें पीडिय मारिणि मयरणलील, रंग पर्यपह कीरइ का वि कील । किउँ पावउँ चिति पियमणम्मि, पडिललइ महीयलि तक्खणम्मि । X X X
X* वरिसंतई जलहरे मंदमंदे, पई सहुं चडेवि णरेसर पुणु इउ हियवई वट्टर जह ण
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X ता मारिणि पभणइ गिभयालि, दावाणललग्ग
प्रइवमालि । कहि प्रच्छइ जलहरु सामिसाल, संभवइ रग एहउ गुणविसाल । ता राएं गियमणि कलिवि एउ, संचितिउ X X मोक्कलेइ चित्ति विभु
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मेहजालु ताउ तेरण
मंद मंदु, संभरीउ,
रउ करेविणु रियगइंदे | परमेसर पट्टणु भममि सगोउरउ | विघट्टइ तो णिच्छ एवहि मरउँ । 1.10
मेहकुमारदेउ । 1.11
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तोर्याबदु । विष्फुरीउ । 1.12
वह हाथी राजा-रानी को लेकर भाग खड़ा हुम्रा और कालिंजर के एक सरोवर में जा बैठा । रानी वहाँ वन में भटकने लगी और माली के घर श्राश्रय पा सकी। वहाँ भी विपत्ति ने पीछा नहीं छोड़ा। रानी का सौन्दर्य शत्रु हो गया । गजगामिनि और ढोला के साथ भी ऐसा ही हुआ है । रानी को मालिनि की ईर्ष्या के कारण घर छोड़ना पड़ा, बीहड़ श्मशान में प्रसव हुआ । सीता ने भी ऋषि श्राश्रम में ही पुत्रों को जन्म दिया था। मालिनि का वितर्क, प्रति सामान्य होते हुए भी जादू भरा है
एह नारि विसिट्ठी गयरणारण पियारी
वरणवालहो घरि सा वसइ जाम, कुसुमत्तएं चितिउ हिय ताम । तहि विट्ठी किणरि किं विज्जाहरिय | महिलहं सारी चंपयगोरी गुणभरिय | 1.15
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