Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ 121 ता हरिसुक्कंठऍ खयरेण, लोयहं परिग्रक्विड सुन्दरेण । मायंगहो सुउ णउ होइ एह, रिगवणंदणु एहउ दिव्यदेहु । X X जयघोसु पर्वाड्डउ गयरणयले करणया मरवाह मारणर्वाह करकंड X भ्रमरेहि सुमंगलु पूरियउ । विधि का विधान कैसा विचित्र है ? साम्राज्ञियां श्मशान में प्रसव के लिए प्रेरित हैं मौर राजकुमार मातंगों द्वारा पालितपोषित है । इस प्रकार करकंड का श्मशान से उद्धार होता है और वह राजा बनता है । कैसी प्रसंगति श्रोर कैसे एकरेखीय संगति में पिरो दी गई हैं कि दोनों छोर जुड़कर समाधेय हो गये हैं । यह अभिप्राय अन्यान्य रूपों में जनता की जिह्वा पर चटखारों के साथ आज भी प्रासन जमाए है । X रज्जे वइसारियउ । 12.21 जब अनजान में पिता-पुत्र करती है । इस अभिप्राय के एक स्थान पर सीता परिचय मानव सम्बन्धी एक अन्य अभिप्राय तब सामने प्राता है, मांडलीक भावना से जूझ उठते हैं। बीच-बचाव रानी माता दर्शन लवकुश वृत्त और अर्जुन वभ्रुवाहन वृत्त में भी होते हैं । कराती है और दूसरी जगह अलोपी समाधान करती है। पारस की रुस्तम - सोहराब की कथा का मूल प्राधार तो यही अभिप्राय है । नई पीढ़ी की परख ने नाद से अर्थ की सृष्टि की है और कथ्य को भोज के चित्रात्मक और अप्रतिहत है - की यह अच्छी कसौटी है । कवि वेष्टन में लपेट दिया है, भाषा ता रोसें चंपहिउ गरिबु, रह चडिवि पधायउ णं सुरिंबु । सो तुरिउ गयउ परबलणिवासु, ग्रभिडियउ करकंडहो णिवासु । X X सर पेसिय जा चंपाहिवेण, करकंडहो बलु भग्गउ खगेण । करकंडए पेच्छिवि बलु चलिउ मरिण रोसु जा बिज्ज पइण्णी लेयर तहे पेसणु जैन विद्या X टंकारस घोरें रउब्वेण । धरणियलु तडयडिउ, तस कुम्मु कडयडिउ । भुवणयसु खलभलिउ, गिरिपवर टलटलिउ । महंत विष्फुरिउ । विष्णउ तें तुरिउ ।। 3.16 X X खगणाहु परिसरिज, सुरराउ रहरिउ । सो सदु सुणेविणुधणुगुणहो रह भग्गा णट्ठा गयपवर । मउगलियर चंपणराहिवहो भयभीय ण चल्लह कहि खयर ॥ 3.18 X X X

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112