Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 24
________________ जनविद्या वैसे देखती है । मानवता उसकी सुवास है, विचार तेज और वीर्य । इससे उसकी स्वायत्तता टूटती भी नहीं है और प्रति को चूमती भी नहीं है । 10 हमारी इस आलोच्य कथा में जीवन के प्रति लोकप्रिय साहित्य का रवैया मुक्त के पुनर्भोगवाला नहीं है, आविष्कार का रवैया है । कला के साथ मिलकर एक ऐसा सामंजस्य है जिसके लिए मानव सदा-सर्वदा लालायित रहता है। इस तरह इसमें जीवन की सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था का प्रयत्न भी है और व्यक्ति के सामंजस्यपूर्ण विकास के पदचिह्नों का संकेत भी है । व्यक्ति में विश्व का संघनन होता है और विश्व में व्यक्ति का प्रस्फुटन । मनुष्य सभी सामाजिक सम्बन्धों की समष्टि है । उसमें सृजनशीलता भी आवश्यक है और नैतिकता भी । इस कथा की सारी परिघटनाएँ सामाजिक कारणों से हैं, तकनीकी कारकों से नहीं हैं । जहाँ तक अन्धविश्वासों का सवाल है, वे हमारी जानकारी के निषेध बिन्दु भी हैं, और फिर जिनमें हमें विश्वास होता है, उनमें तार्किक भेद करना भी कठिन है । इसमें व्यापक और युगीन वास्तविकता की गहन पकड़ है, अत्यन्त सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है तथा सृजन प्रयोगों का सर्वतोमुखी और सुसंगत हृत्कंपन है। विरोधों का तर्क भी है और विरोधों के बीच संगति भी । लोक जैसे अनादि निधन है, वैसे ही लोकाभिप्राय और रूढ़ियाँ भी अनादि-निधन हैं । इनके श्रद्धान के सामने तर्क शिथिल होता है और जानकारी निस्तब्ध । ये सतत् प्रवाहशील हैं - गुप्त - प्रकट सरिता के सदृश । इनकी ऐतिहासिकता परिणाम में नहीं है, चयन और प्रसार में है । इसलिए इनके बीच प्रागा-पीछा नहीं होता, हाँ अर्थ की सघनता अवश्य प्रतीक प्रक्रिया का अंग बनती रहती है । जब चाहें, जहाँ चाहें, रेत हटाइए और चुल्लू भर लीजिए । भारतीय साहित्य के पौराणिक काल में इनका अत्यधिक मान-सम्मान रहा है । उक्त कथा पर ही 'कथा सरित्सागर' 'यशस्तिलकचंपू' 'वसुदेवहिंडी' 'वृहत्मंजरी' 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' 'पद्मपुराण', 'पउमचरिउ', 'उत्तराध्ययन टीका', 'हरिवंशपुराण', 'महाभारत', 'णायामकहानी', 'कुम्भकारजातक', 'उत्तररामचरित नाटक', 'कादम्बरी', 'महापुराणु', प्रादि का प्रभाव खोजा जाता है और इसका 'रयणसेहरीकहा', 'पद्मावत' आदि पर। लेकिन इस प्रकार के हरण ग्रहरण की चर्चा मनोविनोद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इस तरह के अभिप्राय और रूढ़ियाँ किस • प्रबन्धकाव्य में देखने को नहीं मिलतीं ? हिन्दी के 'पृथ्वीराजरासो', 'रामचरितमानस' 'सूरसागर', 'पद्मावत' 'शिवराजभूषण', आदि ग्रंथ इस प्रकार के लोकतत्त्व से आकंठ भरे हैं । गीत - प्रगीतों में भी इनकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है। आधुनिक काल का सृजन भी इनकी छाया से मुक्त नहीं है । निषेध के परदों से भी ये चमक-दमक उठते हैं। इनकी उपलब्धि इनकी : कलात्मक योजना में है । इसलिए इस निबन्ध में उच्चकथा संरचना के प्रमुख लोकतत्त्वअभिप्राय, रूढ़ि आदि का वर्णन उनके सृजनात्मक परिप्रेक्ष्य में किया गया है । 'कउ' के कथानक की कड़ियाँ प्रतिसामान्य जीवन से जुड़ी हैं । उसमें अनेक मोड़ हैं और उसके तेवर 'पंचतंत्र' सरीखे हैं । कथानक इसी कारण अतिव्यापक और प्रमुख है, पात्र संवाहक मात्र हैं, वे चाहे किसी वर्ग के हों-सामंत, पूंजीपति या इस वर्ग के खेचर, विद्याधर,

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