Book Title: Jain Vidya 08
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 22
________________ अनित्य भावना कम्मेण परिट्टिउ जो उवरे, जमरायएं सो णिउ जिययपुरे । जो बालउ बालह लालियर, सो विहिरणा गियपुरी चालियउ । वजोव्वणि चडियउ जो पवरु, जमु जाइ लएविणु सो जि गरु । जो बूढउ वाहिसएहि कलिउ, जमदूर्याह सो पुणु परिमलिउ । छक्खंड वसुंधर जेहि जिया, चक्केसर ते कालेज णिया । विज्जाहर किरार जे खयरा, बलवंता जममुहे पडिय सुरा । उ सोत्ति बंभणु परिहरइ णउ छंडइ तवसिउ तवि ठियउ । घणवंतु ण छुट्ट ण वि विहणु जह काणणे जलणु समुट्ठियउ । अर्थ-कर्म के वश से जो उदर में आकर बैठा, मृत्यु (यमराज) उसे अपने नगर में ले गई । जिस बालक का लालन-पालन किया विधि ने उसे भी अपने पुर में भेज दिया । जो मनुष्य नवयौवन तक पहुँचता है, चाहे वह श्रेष्ठ ही हो, मृत्यु उसे भी लेकर चल देती है । बूढ़ा होकर अनेक व्याधियों से पीड़ित है वह तो यम द्वारा मदित होने ही वाला है। जिन चक्रवर्तियों ने छहखण्ड पृथ्वी को जीता वे भी काल द्वारा ले जाये गये । विद्याधर, किन्नर, खेचर और सुर बलवान होते हुए भी मृत्यु (यम) के मुंह में जा पड़े। जैसे सारे वन में फैली हुई भाग किसी को भी नहीं छोड़ती, सारे वन को जला देती है वैसे ही मृत्यु न श्रोत्रिय ब्राह्मण को छोड़ती है न तप में लीन तपस्वी को । उसके मुख से न धनवान छूटता है और न निर्धन । करकण्डचरिउ, 9.5

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