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६६ : जैन तत्वकलिका
(२१) श्री नमिनाथजी
फिर ६ लाख वर्षों के बाद, मथुरानगरी के विजय राजा की विप्रादेवी रानी से इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथजी का जन्म हुआ । परीषह, उपसर्ग आदि शत्रुओं को नमा - झुका देने से 'नमि' नाम पड़ा तथा भगवान् जब गर्भवास में थे, तब वैरी राजा आकर भगवान् के पिता के आगे नम-झुक गए, नमस्कार करने लग गए। इसी कारण आपका नाम 'नमिनाथ' रखा गया ।
आपके शरीर का वर्ण सोने-सा पीला और लक्षण नीलकमल का था । आपके शरीर की अवगाहना १५ धनुष की और आयु दस हजार वर्ष की थी । जिस में से साढ़े सात हजार वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे और शेष ढाई हजार वर्ष तक संयम- पालन किया। अन्त में एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया ।
(२२) श्री अरिष्टनेमिजी (नेमिनाथजी )
तत्पश्चात् ५ लाख वर्षों के बाद सौरीपुर नगर के समुद्रविजय राजा की शिवादेवी रानी की कुक्षि से बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमिजी का जन्म हुआ । धर्मचक्र की नेमि ( पुट्ठी या धारा के समान जिसके जीवनचक्र की नेमि (धारा) हो यह नेमि है तथा जब भगवान् माता के गर्भ में थे, तब माता ने अरिष्टरत्नमय नेमि (चक्र धारा) आकाश में, उत्पन्न होती देखी थी, इस कारण से आपका नामकरण 'अरिष्टनेमिनाथ' किया ।
आपके शरीर का वर्ण नीलम के समान श्याम था और लक्षण थाशंख का । देहमान १० धनुष का और आयुष्य एक हजार वर्ष का था । जिसमें से ३०० वर्ष तक गृहवास में और शेष ७०० वर्ष तक संयमी जीवन-साधना में रहे । अन्त में, ५३६ मुनियों के साथ मोक्ष में पधारे ।
(२३) श्री पार्श्व नाथजो
श्री अरिष्टनेमि के पश्चात् ८३ हजार ७५० वर्ष बीत जाने पर वाराणसी के अश्वसेन राजा की वामादेवी रानी से तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। जो ज्ञान से सर्वभावों को स्पर्श करता - जानता है, वह पार्श्व है । अथवा पार्श्व नामक यक्ष जिनकी वैयावृत्य - सेवा करता है, उस पार्श्वयक्ष के नाथ होने से भी आप पार्श्वनाथ कहलाते हैं । जब भगवान् गर्भावास में थे, तब शय्या पर स्थित माता ने रात्रि के गाढ़ अन्धकार सर्प देखा था, अतः 'पश्यति' – देखती है, इस कारण से भी आपका नाम पार्श्व रखा गया ।