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गुरु स्वरूप : १४५
.(४) गृहपति-अदत्त-जिस गृहस्थ के स्वामित्व का मकान, वस्त्र, या साधु के लिए ग्राह्य कोई भी वस्तु हो तो उसकी आज्ञा या स्वीकृति सम्मति; के बिना ग्रहण करना-गृहपति-अदत्त है, अथवा स्वामि-अदत्त है। सभी अपने-अपने शरीर या अंगोपांग के स्वामो हैं, इसलिए स्वामि-अदत्त का यह अर्थ भी है, कि किसी जीव की बिना अनुमति-सम्मति के उसका शरीर, या अंगोपांग को काटना, प्राण हरण कर लेना या अपहरण करना।
। (५) सामि-अदत्त-साधु के उसी संघ या अन्य गच्छ गण या संघ में जितने भी साधु-साध्वी हैं, वे सब साधर्मी हैं। साधर्मी चार तरह से होते हैं-वेष से, क्रिया से, सम्प्रदाय से या धर्म से। इन चारों प्रकार के सार्मिकों में परस्पर एक दूसरे के उपकरणों, वस्त्र-पात्रों या अन्य वस्तुओं को उनकी अनमति या इच्छा के बिना ग्रहण करना सार्मि-अदत्त है। इन सबका अदत्त (बिना अनमति के) ग्रहण करना अदत्तादान है । तृतीय महाव्रत की पाँच भावनायें
(१) अनुवीचि-अवग्रह याचन -सदैव द्रव्य, क्षेत्र, काल की मर्यादा के अनुसार सम्यक् विचार करके उपयोग के लिए आवश्यक स्त्री-पशु-नपुसक रहित शुद्ध, निर्दोष, सचित्त पृथ्वी-जलादि स्थावर-त्रसजीवरहित अवग्रह स्थान की याचना करना।
(२) अभीक्ष्ण-अवग्रह-याचन-सचित्त (शिष्य आदि), अचित्त (तण स्थान आदि) तथा मिश्र (उपकरण सहित शिष्य आदि) के जो-जो स्वामी (राजा, गृहपति, शय्यातर आदि) हों, उनसे एक बार ग्रहण करने के बाद उसके स्वामी ने वापिस ले लिया हो या उसे सौंप दिया गया हो, किन्तु रोगादि कारणवश विशेष आवश्यक होने पर उसके स्वामी से बार-बार आज्ञा लेकर ऐसी मर्यादा से ग्रहण करना, ताकि उसे क्लेश न होने पाए।
(३) अवग्रहावधारण-निर्दोष स्थान उसके स्वामी या अधिकृत नौकर * आदि की आज्ञा से ग्रहण करना, याचना करते समय ही अवग्रह का परिमाण 'निश्चित कर लेना अवग्रहावधारण है । आज्ञा ली जाने पर साधु के लेने योग्य जो पदार्थ पहले से पड़े हों, (कंकर आदि) उन्हें ही ग्रहण करना।
११ जैन तत्त्व प्रकाश में अदत्त के ४ भेद बताए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) स्वामी# अदत्त (२) जीव-अदत्त, (३) तीर्थंकर-अदत्त और (४) गुरु-अदत्त ।
-जैन तत्त्व प्रकाश पृ० १२६