Book Title: Jain Tattva Kalika
Author(s): Amarmuni
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 598
________________ २७० | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका भी अतिचार है । (३) शब्दानुपात - परिमाण की हुई भूमि से बाहर कोई अन्य पुरुष जा रहा हो, उस समय आवश्यक कार्य कराने के लिए मुख से खंखार अदि शब्द करके अपना अभिप्राय प्रकट करना । यह भी अतिचार है । (४) रूपानुपात - देशावकाशिकव्रत में बैठे हुए व्यक्ति के द्वारा किसी व्यक्ति से कोई कार्य कराने का स्मरण होते ही अपना रूप दिखलाकर उक्त व्यक्ति को को बोधित करना रूपानुपात नामक अतिचार है । (५) पुद्गलप्रक्षेप - परिमित भूमि से बाहर कंकर आदि कोई वस्तु फेंक कर अपने मनोभाव दूसरों को जताना भी अतिचार है । ' इन पांच अतिचारों से इस व्रत के साधक को बचना चाहिए । (३) परिपूर्ण पौषधव्रत उपवास करके आठ पहर विशेष आत्मचिन्तन धर्मध्यान में व्यतीत करना ग्यारहवां पोषधोपवासव्रत है । यह तृतीय शिक्षाव्रत है | श्रावक को दूज, पाँचम, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या या पूर्णिमा, इन पर्व तिथियों में सांसारिक कार्यों से निवृत्त होकर शुद्ध वसति (पौषधशाला, उपाश्रय आदि) स्थान में पौषधोपवास करना चाहिए । पौषध में चार प्रकार का त्याग अनिवार्य होता है - स्नान श्रृंगार, अब्रह्मचर्य, आहारादि एवं सांसारिक व्यापारादि का त्याग । इस दिन साधुवृत्ति में रहकर अपना समस्त समय, स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिन्तन आदि में लगाना चाहिए। अधिक नहीं हो सके तो कम से कम महीने में दो पौषधोपवास तो अवश्य करने ही चाहिए। इससे द्रव्यरोगों के साथ-साथ भावरोगों (कर्मों) का भी नाश होता है, कर्मनिर्जरा से आत्मप्रदेश निर्मल हो जाते हैं, भूख को सहने की शक्ति भी बढ़ जाती है । ग्यारहवें पौषधोपवास के पाँच अतिचारों को जानकर उनका त्याग करना आवश्यक है- ( १ ) अप्रत्यवेक्षित दुष्प्रत्यवेक्षित शय्या संस्तारक - पौषध में अपने शय्या-संस्तारक का प्रतिलेखन न किया हो, किया हो तो भलीभाँति प्रतिलेखन न किया हो, अस्थिर चित्त से किया हो यह प्रथम अतिचार है । (२) अप्रत्यरेक्षित- दुष्प्रत्यवेक्षित उच्चार- प्रस्रवणभूमि - पौषध में उच्चार-प्रस्रवण प्रति( स्थंडिल ) भूमि का प्रतिलेखन न किया हो, किया हो तो अच्छी तरह लेखन न किया हो, अस्थिरचित्त से किया हो तो अतिचार है, (३) अप्रमाजितः १ तयाणंतरं च णं देपावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा – आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सद्दाणुवाए रूवाणुवाए बहियापुग्गपक्खेवे । - उपासकदशांग अ. १

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