Book Title: Jain Tattva Kalika
Author(s): Amarmuni
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 607
________________ प्रमाण-नय-स्वरूप | २७७ पदार्थ का जो साक्षात् ज्ञान होता है, उसे आत्म-प्रत्यक्ष पारमार्थिक प्रत्यक्ष या नो-इन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह इन्द्रियों के लिए प्रत्यक्ष और आत्मा के लिए परोक्ष है । अतः उसे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। त्रिकालवर्ती प्रमेय मात्र केवलज्ञान का विषय बनता है, अतः उसे सकल प्रत्यक्ष और अमुक भाग जो अवधि और मनःपर्यायज्ञान का विषय बनता है, उसे विकल-प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष का प्रतिभास होने में प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं रहती, अथवा 'यह' ऐसा स्पष्ट प्रतिभास होता है। अर्थात्-प्रत्यक्ष वैशद्ययुक्त होता है।' परोक्षप्रमाण-जिसमें वैशद्य (उक्त प्रकारद्वय का) अर्थात्-स्पष्टता का अभाव हो, वह परोक्षप्रमाण कहलाता है। प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। अतः वह पूर्ण है किन्तु अनुमान, आगम आदि प्रमाण पूर्ण नहीं, क्योंकि उनका आधार प्रत्यक्ष है। परोक्षप्रमाण के भेद-प्रभेद - परोक्षप्रमाण के ५ भेद हैं-(१) स्मृति, (२) प्रत्यभिज्ञान, (३) तर्क, (४) अनुमान और (५) आगम । स्मृति-पूर्व संस्कार, वासना या अनुभूति का उद्बोधन होना, अनुभूत वस्तु का स्मरण होना 'स्मृति' है। स्मृति अतीतकालीन पदार्थ को अपना विषय बनाती है। उसमें 'तत्' (वह) शब्द का उल्लेख अवश्य होता है। प्रत्यभिज्ञान--दर्शन (प्रत्यक्ष) और स्मरण से उत्पन्न होने वाले संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे--'यह वही मनुष्य है, जिसे मैंने कल देखा था।' यहाँ वर्तमान में मनुष्य प्रत्यक्ष है, उसमें गत दिवस का स्मरण है। - प्रत्यभिज्ञान के अनेक भेद हैं--एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, और वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि । १ विशदः प्रत्यक्षम् । -प्रमाणमीमांसा १।१।३३ २ अस्पष्टं परोक्षम् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक ३।१ ३ दर्शन-स्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षण तत्प्रतियोगीत्यादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । -प्र० मी० १।२।४

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