Book Title: Jain Tattva Kalika
Author(s): Amarmuni
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 622
________________ २९२ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका भगवान्-जो जीव अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्म-प्ररंजन हैं, अधर्म समाचार हैं, अधार्मिक वृत्तियुक्त हैं, वे सोए रहें, यही अच्छा है, क्योंकि वे सोए रहें तो अनेक जीवों को पीड़ा न होगी तथा वे स्व-पर-उभय को अधार्मिक क्रियारत नहीं बनाएंगे। जो जीव धार्मिक हैं, धर्मानुग हैं, यावत् धार्मिक वृत्ति से युक्त हैं, उनका जागना अच्छा है, क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं और स्व-पर-उभय को धार्मिक कार्य में लगाते हैं। इस प्रकार के संवाद सैकड़ों की संख्या में, आगमों में प्राप्त होते हैं। वे लोक, द्रव्य, जीव आदि के स्वरूप पर स्यावाद शैली से सुन्दर प्रकाश डालते हैं। सप्तभंगी __ आगमयुग के बाद स्याद्वाद का दार्शनिक युग में सप्तभंगी के रूप में विकास हुआ। सप्तभंगी अर्थात् सात प्रकार के भंग-विकल्प, वाक्य विन्यास, वाक्यरचना। वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी भी एक धर्म का विधिनिषेधपूर्वक अविरोधमय कथन करना हो तो सात प्रकार को जिज्ञासा होती है, उसमें से समाधान के रूप में ये सात भंग उत्पन्न होते हैं। सात भंगों की व्याख्या इस प्रकार है प्रथम भंग-वस्तु क्या है ? यह बतलाने के लिए इस प्रकार का प्रथम भंग निष्पन्न होता है । वस्तु 'अस्ति'-भावात्मक ही है, परन्तु स्यात् -कथंचित, अर्थात-अमुक अपेक्षा से यानी स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से । यह स्याद्अस्ति नामक प्रथम भंग है। द्वितीय भंग-वस्तु 'क्या नहीं है ?' इस जिज्ञासा के समाधान के लिए द्वितीय भंग निष्पन्न होता है-वस्तु 'नास्ति' (अभावात्मक) ही है, परन्तु स्यात्-कथंचित्, अर्थात्-अमुक अपेक्षा से-यानी-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से । यह स्यात् नास्ति नामक दूसरा भंग कहलाता है। ___यदि वस्तु में स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से स्वधर्म का अस्तित्व न माना जाए तो वह निःस्वरूप हो जाएगी, यदि परद्रव्यादि की अपेक्षा से परधर्मों का नास्तित्व न माना जाए तो वस्तुसांकर्य हो जाएगा, एक ही वस्तु सर्वात्मक बन जाएगी । अतः इन दो भंगों द्वारा प्रत्येक वस्तु के अनन्तधर्मों में से कुछ का अस्तिधर्म वर्णन करके फिर उसमें न रहने वाले नास्तिधर्मों का कथन कर दिया। .

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