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२८२ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका
जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया'—जितने भी वचनपथ हैं, उतने ही नयवाद हैं। इस दृष्टि से नयों के अगणित प्रकार हैं । परन्तु यहाँ नयों के मुख्य प्रकारों पर विचार करना है।
प्रत्येक नय वचन द्वारा प्रकट किया जा सकता है। अतः नय को उपचार से वचनात्मक भी कह सकते हैं।
वचनव्यवहार के अनन्तमार्ग हैं, किन्तु उनके वर्ग अनन्त नहीं हैं। उनके मौलिक वर्ग दो हैं-भेदपरक और अभेदपरक। भेद और अभेद-ये दोनों पदार्थ के भिन्नाभिन्न धर्म है। नयवाद भेद और अभेद, इन दो वस्तुधर्मों पर टिका हआ है, क्योंकि वस्तु भेद और अभेद को समष्टि है । स्वतन्त्र अभेद भी सत्य नहीं और स्वतन्त्र भेद भी सत्य नहीं है, किन्तु सापेक्ष भेदअभेद का संवलित रूप सत्य है। . .
इस अपेक्षा से नय दो प्रकार का कहा जा सकता है-भावनय और द्रव्यनय । ज्ञानात्मक नय भावनय और वचनात्मक नय द्रव्यनय है। सभी नय अपने लिए बोधकरूप होने पर ज्ञाननय और दूसरे को बोधकरूप होने पर शब्दनय है।
__ सत्य को परखने की दो दृष्टियाँ हैं-द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि । सत्य के दोनों रूप सापेक्ष होने से ये भी सापेक्ष हैं। इसलिए नय के मुख्य दो प्रकार बनते हैं -द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ।
द्रव्य को-मूल वस्तु को लक्ष्य में लेने वाला द्रव्याथिक और पर्याय को-रूपान्तरों को स्वीकार करने वाला पर्यायाथिक कहलाता है। द्रव्यदष्टिप्रधान द्रव्याथिकनय में अभेद का स्वीकार है, जबकि पर्यायदृष्टिप्रधान पर्यायार्थिक नय में भेद का स्वीकार है। द्रव्यदष्टि में पर्यायष्टि का गौणरूप और पर्यायदष्टि में द्रव्यदृष्टि का गौणरूप अन्तहित होगा। भेदअभेद का यह विचार आध्यात्मिक दृष्टिपरक है।
वस्तुविज्ञान की दष्टि से वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है, इसके आधार पर दो दष्टियाँ बनती हैं, जिन्हें क्रमशः निश्चयनय और व्यवहार नय कहा जा सकता है। निश्चय में वस्तुस्थिति का स्वीकार और व्यवहार में स्थूलपर्याय का या लोकसम्मत तथ्या का स्वीकार है। निश्चयनय की दष्टि से जीव
१ सन्मतितर्क ३।४७ २. 'गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, तं जहा–णेच्छइयनए य ववहारिएय नए य ।'
-भगवती १८।११०