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२२ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
(५) अविकल इन्द्रियाँ
कदाचित् पुण्ययोग से दीर्घायु भी प्राप्त हो गई और यदि इन्द्रियाँ परिपूर्ण न मिलें तो भी मनुष्य प्रायः धर्माचरण नहीं कर पाता । जैसे कोई व्यक्ति जन्मान्ध होता है, वह पढ़-लिख नहीं सकता, इसलिए धर्म का बोध उसे प्राप्त होना प्रायः दुष्कर होता है, कोई बहरा होता है, वह धर्म-श्रवण नहीं कर सकता, कोई गूंगा होता है, वह भी भलीभांति धर्मपालन नहीं कर पाता । प्रायः ऐसे मनुष्यों का जीवन भारभूत एवं पराधीन बन जाता है । ऐसी स्थिति में शुद्ध धर्म का आराधन उनके लिए दुष्कर होता है ।
(६) नीरोग शरीर
स्वस्थ और परिपूर्ण इन्द्रियाँ मिलने पर भी यदि शरीर नीरोग न रहता हो, किसी न किसी रोग से आक्रान्त रहता हो तो ऐसा व्यक्ति धर्माराधना नहीं कर सकता । शरीर स्वस्थ होने पर ही जप, तप, त्याग, संवर, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि सुचारु रूप से हो सकते हैं । स्वस्थ शरीर प्रबल भाग्य से मिलता है ।
(७) सद्गुरु-समागम
पूर्वोक्त सभी संयोग मिल भी जाएँ, किन्तु सच्चे निग्रन्थ त्यागी सद्गुरु का सत्संग एवं दर्शन सेवा आदि का लाभ न मिले तो सब कुछ व्यर्थ है, काता - पींजा कपास है; क्योंकि प्रायः कई व्यक्तियों को ऐसे कुगुरु मिल जाते हैं, जो उन्हें गुमराह करके सद्धर्म से वंचित कर देते हैं । ऐसे भंगेड़ीगंजेड़ी, दुर्व्यसनी, दुराचारी कुगुरुओं के कुसंग से व्यक्ति दुर्व्यसनी, दुराचारी एवं अधर्मी ही बनता है | अतः सद्गुरु-समागम मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । सद्गुरु-समागम के बिना सदूधर्म की प्राप्ति होना भी अत्यन्त दुष्कर है। (८) शास्त्र श्रवण
इतने सब योग मिलने पर भी अगर व्यक्ति की रुचि धर्म या शास्त्रों के श्रवण-मनन- पठन-पाठन में या स्वाध्याय में न हुई तो सदूधर्म का बोध होना कठिन है । सदूधर्म के बोध के बिना या तो व्यक्ति धर्म से विमुख हो जाता है या फिर धर्म के नाम से भ्रान्त अशुद्ध धर्म को पकड़ लेता है । अतः शुद्ध धर्म की प्राप्ति शास्त्रश्रवण रुचि के बिना होना प्रायः दुर्लभ है ।
धर्मश्रवण करने का लाभ भी प्रत्येक व्यक्ति नहीं उठा सकता ।