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२३२ | जैन तस्वकलिका --- सप्तम कलिका
और उद्योत ये भी पुद्गलों के कार्य हैं, जो जीवों के लिए प्रायः सहयोगी बनते हैं ।'
औदारिक आदि शरीर भी जीवों के लिए उपकारक बनते हैं और इन सब शरीरों का निर्माण पुद्गल से ही होता है । इनमें कार्मण शरीर अतीन्द्रिय है, किन्तु वह औदारिक आदि मूर्त शरीरों के सम्बन्ध से सुख-दुःखादि विपाक देता है जैसे जलादि के सम्बन्ध से धान्य । इसलिए वह भी पौगलिक है ।
वाणी - भाषा दो प्रकार की हैं - भावभाषा और द्रव्यभाषा । भावभाषा तो वीर्यान्तराय, मति श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली एक विशिष्ट शक्ति है, जो पुद्गलसापेक्ष होने से पौद्गलिक है और ऐसी शक्तिशाली आत्मा से प्रेरित होकर वचन रूप में परिणत होने वाले भाषावर्गणा के पुद्गल स्कन्ध ही द्रव्यभाषा है ।
मन- - लब्धि तथा उपयोगरूप भावमन पुद्गलावलम्बी होने से पौगलिक है । ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से मनोवर्गणा के जो स्कन्ध गुणदोषविवेचन, स्मरण आदि कार्याभिमुख आत्मा के अनुग्राहकसामर्थ्य के उत्तेजक होते हैं, वे द्रव्यमन हैं। इसी प्रकार मानसिक चिन्तन भी पुद्गल की सहायता के बिना नहीं हो सकता । मनोवर्गणा के स्कन्धों का प्राणी के शरीर पर अनुकूल और प्रतिकूल परिणाम होता है ।
प्राणापान - आत्मा द्वारा शरीर के अन्दर पहुँचाया जाने वाला प्राणवायु (प्राण) और उदर से बाहर निकाला जाने वाला उच्छ्वासवायु ( अपान ), ये दोनों पौद्गलिक हैं, साथ ही जीवनप्रद होने से आत्मा के अनुग्रहकारी हैं।
आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार पुद्गल शरीर निर्माण का कारण है । औदारिकवर्गणा से औदारिक, वैक्रियवर्गणा से वैक्रिय, आहारवर्गणा से आहारक शरीर और श्वासोच्छ्वास, तेजोवर्गणा से तैजसशरीर, भाषा वर्गणा से वाणी का मनोवर्गणा से मन का और कर्मवर्गणा से कार्मणशरीर का निर्माण होता है । "
१. (क) शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९ ॥
(ख) सुख-दुःख जीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥
(ग) शब्द -बन्ध सौक्ष्म्य - स्थौल्य संस्थान भेद तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४॥
— तत्त्वार्थसूत्र अ० ५
गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ६०६-६०८: