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२५४ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
(iv) स्नान - -गृहस्थ के लिए आरोग्यशास्त्रियों ने स्नान को आवश्यक माना है; क्योंकि शरीरश्रम से पसीना, मैल आदि शरीर पर जमा हो जाते हैं । स्नान करने से थकावट, पसीना, मैल और आलस्य दूर होता है । (v) भोजन - भोजन का समय भी गृहस्थ का नियमित होना चाहिए । भोजन के समय का मतलब है- 'बुभुक्षाकाल ।' जब कड़ाके की भूख लगे, उसे ही भोजनकाल समझना चाहिए । यदि गृहस्थ भोजन का समय निश्चित कर ले और उसी समय भोजन करने की आदत डाले तो उसी समय उसे भूख लगने लगेगी । अतः भोजन के समय का उल्लंघन गृहस्थ को कदापि नहीं करना चाहिए | समय - बेसमय भोजन करने से कई उदररोग, अग्निमन्दता आदि हो जाते हैं ।
(vi) स्वच्छन्दवृत्ति - स्वच्छन्दवृत्ति यहाँ उच्छं खलता या स्वच्छन्दाचार के अर्थ में नहीं है, अपितु यहाँ स्वच्छन्दवृत्ति का अर्थ है - स्व-आत्मा के, छन्द - विषय में वृत्ति -- प्रवृत्ति करना । गृहस्थ को प्रतिदिन अपनी आत्मा के विषय में चिन्तन-मनन, निरीक्षण, स्वाध्याय, सामायिक, ध्यान आदि करना चाहिए, तथा प्रतिदिन आत्महित के लिए देव, गुरु और धर्म की आराधना में कुछ न कुछ समय अवश्य लगाना चाहिए। इससे सच्ची शान्ति मिलती है, सांसारिक दुःखों का निवारण होता है । अतः इस प्रकार की स्वात्महितकर दैनिकचर्या का कदापि उल्लंघन नहीं करना चाहिए ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने इन्हीं कुछ गुणों को सामान्य गृहस्थधर्म के लिए अनिवार्य बताया है । आचार्य हेमचन्द्र ने मार्गानुसारी के ३५ गुण बताए हैं, जिनमें से कुछ तो इन्हीं से मिलते-जुलते हैं । जो गृहस्थ सामान्य गृहस्थधर्म का पालन करता है, वह सदाचारी, नीति- न्यायपरायण, आत्महितचिन्तक बन जाता है तथा वह विशेष धर्म का पालन करने के योग्य बन जाता है । गृहस्थ का विशेष धर्म
सद्गृहस्थ को सामान्य धर्म का पालन करने के साथ- साथ ही विशेष धर्म की ओर मुड़ जाना चाहिए ताकि इहलोक - परलोक सुख के अतिरिक्त मोक्षसुख को प्राप्त कर सके । आत्मिक सुख ही सच्चा सुख है, जिसकी प्राप्ति विशेष धर्म के पालन से होती है ।
विशेष धर्म का पालन करने के लिए सद्गृहस्थ को सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों (पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ) का निरतिचार पालन करना आवश्यक है । सम्यक्त्वी गृहस्थ को श्रावक या श्रमणोपासक कहा गया है । उसे अपने सम्यक्त्व को सुदृढ़ करने के लिए प्रतिदिन धर्मोपदेश