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१९६ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
गाढ़ा लेप आत्मा पर से सर्वथा उतर जाने से, कर्मों का संग न रहने से, नीराग (निर्लेप ) होने से, आत्मा के स्वाभाविक गति ( ऊर्ध्वगमन) - परिणाम से अकर्मक (कर्ममुक्त) जीवों की भी गति (ऊर्ध्वगमन) मानी जाती है ।
निष्कर्ष यह है कि जिस प्रकार बन्धनों एवं लेपों से रहित होकर तुम्बा जल के ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार कर्ममुक्त आत्मा भी कर्मबन्धनों एवं कर्मलेपों से सर्वथा रहित होकर ऊर्ध्वगमन करके लोकाग्रभाग में विराजमान हो जाता है ।
इसके पश्चात् बन्धन-छेदन से कर्ममुक्त की गति के विषय में प्रश्नोत्तर है
गौतम —भन्ते ! बन्धन-छेदन से कर्मरहित जीवों की गति किस प्रकार जनी जाती है ?
भगवान् - गौतम ! जैसे— कलाई की फली, मूंग की फली, या उड़द की फली को अथवा एरण्ड के फल को धूप में सुखाने पर उक्त फली के या एरण्डफल के टूटते ही उसका बीज एकदम छिटक कर ऊपर की ओर उछलता है । ठीक उसी प्रकार कर्मबन्धन के टूटते ही कर्ममुक्त जीव शरीर को छोड़कर एकदम ऊर्ध्वगमन करता है ।
सारांश यह है कि जैसे एरण्ड आदि के सूखे फल से बीज बन्धनरहित होकर एकदम ऊपर को उछलता है, उसी प्रकार कर्ममुक्त जीव भी कर्मबन्धन से रहित होते ही ऊर्ध्वगति करता है ।
इसके पश्चात् कर्मरूपी ईंधन से रहित होने से जीवों की ऊर्ध्वगति के विषय में गौतम द्वारा प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा- गौतम ! जिस प्रकार धुआ ईंधन से विप्रमुक्त ( ईंधन का अभाव ) होते ही स्वाभाविक रूप से बिना किसी व्याघात ( रुकावट ) के ऊर्ध्वगमन करता है, ठीक इसी प्रकार कर्मरूप ईंधन न मिलने से कर्ममुक्त जीव भी स्वाभाविक रूप से ऊर्ध्वगमन करते हैं ।
पूर्व प्रयोग से कर्ममुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति के विषय में प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा—गौतम ! जैसे- धनुष से तीर छूटते ही वह लक्ष्याभिमुख होकर बिना किसी रुकावट के गति करता है, उसी प्रकार कर्मों का संग छूटने से, रागरहित (निर्लेप ) हो जाने से, यावत् पूर्वप्रयोग वश अकर्म( कर्ममुक्त ) जीवों का ऊर्ध्वगमन माना जाता है ।
निष्कर्ष यह है कि जितने बल से जिस दिशा में धनुष-बाण चलाने