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७० | जैन तत्त्वकलिका : चतुर्थ कलिका
(४) मनःपर्यायज्ञान जिससे संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जा सके, वह मनःपर्याय या मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। विशिष्ट निर्मल आत्मा जब मन द्वारा किसी प्रकार की विचारणा करता है अथवा किसी प्रकार का चिन्तन करता है, तब चिन्तनप्रवर्तक मानसवर्गणा के विशिष्ट आकारों की रचना होतो है। उन्हें शास्त्रीय भाषा में मन के पर्याय कहते हैं। संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के ऐसे मन के पर्यायों का ज्ञान होना, मनःपर्यवज्ञान है। यह भी प्रत्यक्ष ज्ञान है क्योंकि मनोद्रव्य का साक्षात्कार करने में आत्मा को अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों का आश्रय नहीं लेना पड़ता।
मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का है-ऋजुमति और विपुलमति । मनोगत भावों को सामान्यरूप से जानना ऋजुमति और विशेषरूप से जानना विपुलमति है।
(५) केवलज्ञान ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का सर्वांशतः नाश होने पर जो एक, निर्मल, परिपूर्ण, असाधारण और अनन्तज्ञान उत्पन्न होता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। ___एक अर्थात्--अकेला-अन्य से रहित (केवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यवज्ञान नहीं होते, मात्र केवलज्ञान ही होता है), निर्मल अर्थात् सर्वथा मल-अशुद्धि-रहित, परिपूर्ण (केवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब जानने योग्य सर्वपदार्थों का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है, अतः वह परिपूर्ण है), असाधारण (उसके सदृश दूसरा एक भी ज्ञान नहीं, अतः असाधारण है), और अनन्त (आने के पश्चात् जाता नहीं, इसलिए अन्तरहित) है।
इस ज्ञान की प्राप्ति होने से भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीन कालों के सर्वपदार्थों के सभी पर्याय प्रत्यक्ष जाने जाते हैं। आत्मा के ज्ञान की यह चरमसीमा है। इससे आगे कोई भी ज्ञान नहीं है।
अतः जब तक केवलज्ञान (सर्वज्ञत्व) प्राप्त न हो, तक तब सर्वज्ञत्व प्राप्त कराने वाले मतिश्रुतज्ञान का तथा अवधि और मनःपर्यवज्ञान का यथाशक्ति अभ्यास करना ही श्रुतधर्म का प्रधान उद्देश्य है । यही सम्यग्ज्ञान के रूप में श्रुतधर्म का विशिष्ट अर्थ है ।।