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कर्मवाद : एक मीमांसा | १६७
द्वारा आत्मा और क़र्मपरमाणुओं का संयोग होता है । इस प्रक्रिया को आस्रव कहते हैं । आस्रव के द्वारा बाहरी कर्म पौद्गलिक धाराएँ शरीर में आती हैं । फिर आत्मा के साथ सम्पृक्त कर्मयोग्य परमाणु कर्मरूप में परिणत होते हैं, जिसे बन्ध कहते हैं, वह आता है । कर्मपरमाणुओं के आत्मा से वियोग को निर्जरा कहते हैं । निर्जरा के द्वारा कर्मपुद्गल धाराएँ फिर शरीर के बाहर चली जाती हैं । इस प्रकार कर्मपुद्गल -परमाणुओं के शरीर में आने और पुनः चले जाने के बीच की दशा को बन्ध कहा जाता है । शुभ और अशुभ परिणाम आत्मा की क्रियाशक्ति ( करणवीर्य ) के प्रवाह हैं जो निरन्तर रहते हैं । इन दोनों में कोई न कोई एक परिणाम तो प्रति समय अवश्य ही रहता है । शुभपरिणति के समय शुभ और अशुभ परिणति के समय अशुभ कर्मपरमाणुओं का आकर्षण होता है ।
बन्ध के नियम
अकर्म के कर्म का बन्ध नहीं होता । पूर्वकर्म से बद्ध जीव ही नये कर्मों का बन्ध करता है । मोहकर्म के उदय से जीव रागद्वेष से परिणत होता है, तभी अशुभकर्मों का बन्ध करता है । मोहरहित प्रवृत्ति करते समय जीव शरीरनामकर्म के उदय से शुभकर्म का बन्ध करता है । पहले बधा हुआ ही बधता है, अबद्ध नहीं; या नये सिरे से नहीं । यदि यह नियम न हो तो मुक्त (अबद्ध) जीव भी कर्मबन्ध से बँध जाएँगे ।'
कर्मबन्ध कैसे, किस क्रम से ?
भगवतीसूत्र में एक संवाद श्री गौतम स्वामी और भगवान् महावीर का है जो इस प्रकार है - श्री गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैंभन्ते ! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बांधता है ?
भगवान् - गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से जीव दर्शनावरणीय कर्म का (तीव्र) बन्ध करता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनमोहनीय का तीव्र अध्यवसाय (बन्ध ) होता है तथा दर्शनमोहन य कर्म के तीव्र उदय से जीव मिथ्यात्व को अपनाता है अतः मिथ्यात्व के उदय से जीव आठों ही प्रकार की कर्म प्रकृतियों को बांधता है | "
१ प्रज्ञापना, पद २३।१।२६२
२ कहं णं भंते ! जीवा अट्ठकम्मपगडीओ बंधइ ?
गोयमा ! नाणावर णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं नियच्छइ,
(क्रमशः)