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धर्म के विविध स्वरूप | ५१ हो), संघमहामंदरं वंदे (संघरूपी महामंदराचल को वन्दन हो), 'संघं गुगायरं वंदे' (संघरूपी गुणाकर को वन्दन हो;) कह कर संघ को वन्दन-नमस्कार किया है । नन्दीसूत्र में १६ गाथाओं द्वारा संघ की स्तुति की गई है।' संघधर्म का पृथक वर्णन क्यों ?
यह प्रश्न समुपस्थित हो सकता है कि श्रु त-चारित्रधर्म में ही संघधर्म का समावेश हो जाता है, फिर उसका अलग से वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ?
इसका समाधान यह है कि थ्र त-चारित्रधर्म प्रत्येक व्यक्ति का पृथकपृथक धर्म है, जबकि संघधर्म सबका (संघ के सभी सदस्यों का) सामूहिक धर्म है । संघधर्म में व्यक्ति अपने कल्याण के साथ-साथ समस्त समाज का कल्याण, हित और श्रेय-साधन करता है, जबकि संघधर्मविहीन श्र तचारित्र धर्म में संघ के हित के लिए प्रवृत्ति नहीं होती; इतना ही नहीं, संघ पर आई हई विपत्ति, संघ-शान्ति आदि के लिए प्रयत्न भी नहीं होता। किन्तु इसका परिणाम यह होगा कि संघधर्म के अभाव में श्रुत-चारित्र-धर्म भी अधिक समय तक टिक नहीं सकेगा।।
जैसे--किसी गाँव के लूटे जाने पर व्यक्ति (ग्राम का एक निवासी) चाहते हुए भी अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा नहीं कर सकता, वैसे ही संघधर्म की सुरक्षा न होने पर श्र त-चारित्रधर्म रूप व्यक्तिगत सम्पत्ति की भी सुरक्षा नहीं हो सकती । क्योंकि संघ में न होने से उसकी श्रु तसम्पत्ति की अभिवृद्धि
और सुरक्षा होनी कठिन है, सत्य, शील आदि चारित्र सम्पत्ति की रक्षा भी सम्भव नहीं है । अतः श्रु त-चारित्र-धर्म की रक्षा के लिए संघधर्म की रक्षा करना अनिवार्य है।
दूसरी बात यह है कि जैसे श्रुतधर्म और चारित्रधर्म अलग-अलग हैं, वैसे ही संघधर्म उन दोनों से भी पृथक है। संघधर्म में भी साधु और श्रावक के धर्म में अन्तर
लोकोत्तर संघधर्म में गृहस्थ और त्यागी दोनों प्रकार के सदस्य होते १ (क) नंदीसूत्र-संघस्तुति गा-१८, १९ (ख) नगर-रह-चक्क-पउमे, चंदे सूरे समुद्दमेरुम्मि ।
जो उवमिज्जइ सययं, त संघ गुणायरं वंदे ॥ जिस संघ को सतत नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र और मेरु पर्वत से उपमित किया जाता है, उस गुणों के आकर (खान) संघ को मैं वन्दन करता हूँ।
__ -नन्दीसूत्र संघस्तुति, गा. १६