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४२ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
उच्चकुलीन कहलाएगा। हाँ, अगर कुलपरम्परागत धर्मानुरूप आचार-विचार में कोई त्रुटि उत्पन्न हो गई हो तो कुलस्थविर दीर्घ-दृष्टि से सोचकर उसका निवारण करने का प्रयत्न करते हैं।
लोकोत्तर कुल कहते हैं—एक गुरु के विस्तृत शिष्य परिवार को । एक गुरु के शिष्यों का जो परस्पर वन्दनादि व्यवहार है, शास्त्रवाचना, आहारपानी के आदान-प्रदान का जो सम्बन्ध है, अथवा गच्छ या संघाड़े के रूप में जो समाचारी है, अथवा तप, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि जो कुलपरम्परागत क्रियाएँ हैं, नियमोपनियम हैं, वे सब लोकोत्तर कुलधर्म के अन्तर्गत हैं। दीर्घदर्शी कुलस्थविरों के द्वारा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परिस्थिति देखकर साधु संस्था के नियमोपनियमों में जो संशोधन-परिवर्धन किया जाता है; वे भी कुलधर्म हैं, और उक्त लोकोत्तर कुल के साधुगण को उनका पालन करना चाहिए। अगर लोकोत्तर कुल का कोई साधक स्वच्छन्द होकर कुलधर्म का उल्लंघन करता है तो कुलस्थविर का कर्त्तव्य है कि वह उसे सचेष्ट करके पुनः कुलधर्म के पथ पर ले आए।
लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही प्रकार के कुलधर्मों का ध्येय, लोकजीवन को सफल बनाते हुए, यथाशक्ति श्रुत-चारित्रधर्म का पालन करके मोक्ष पहुँचना है।
(६) गणधर्म अनेक कुलों के समूह को गण कहते हैं । गण के प्रत्येक सदस्य का गण के प्रति बफादार रहना, गण-स्थविर द्वारा निर्धारित नीति-रीति, एवं सदाचार के नियमों का पालन करना, गण के किसी सदस्य पर कोई जबर्दस्त व्यक्ति अन्याय-अत्याचार करता हो, सताता हो, उस समय उक्त निबल गण-सदस्य की सहायता करना, उसे न्याय दिलाना, बलिदान देकर भी अन्याय-अत्याचार का प्रतीकार करना, गणधर्म है।
- प्राचीन काल में भारत में गणतन्त्र पद्धति थी। भगवान् महावीर के युग में नौ मल्ली और नौ लिच्छवी जाति के अठारह गणराज्यों का गणतन्त्र इतिहास में प्रसिद्ध था। अठारह गणराज्यों के गणतन्त्र की यह खूबी थी कि वह सबलों द्वारा सताई जाने वाली निबल एवं पीड़ित जनता को पीडामुक्त कराने के लिए, उसकी सुख-शान्ति की व्यवस्था करने के लिए तन-मन-धन को न्यौछावर करने में नहीं हिचकता था। असहायों की सहायता करने में वह अपना गौरव समझता था।
वैशाली गणतन्त्र के संचालक, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में गणस्थविर