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२५० : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
'उत्तम' शब्द का प्रयोग किया है, जैसा कि तत्वार्थ सूत्र में भी है। वे दश प्रकार के श्रमणधर्म इस प्रकार हैं
(१) क्षमाधर्म-यह साधु का प्रथम धर्म है। क्षमा का दूसरा नाम क्षान्ति है अतः क्षमा के दो अर्थ हैं-क्रोधरूपी शत्रु का निग्रह करना और (२) प्रतीकार करने का सामर्थ्य होने पर भी दूसरे के द्वारा किये गये अपकार (निन्दा, गाली, प्रहार, अपशब्द, दोषारोपण, क्रोध, ताड़न-तार्जन आदि) को समभाव से विवेक-विचारपूर्वक सहन करना ।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा कहे हुए दुर्वचनों, किये गये दुर्व्यवहारों को सहन करना, इतना सहनशील बनना कि मन से भी उसके प्रति क्रोध उत्पन्न न होने देना, उत्पन्न क्रोध या आवेश को ज्ञान, विवेक, भावना, और नम्र भाव से निष्फल कर डालना। क्षमा की साधना के पाँच उपाय हैं।
(अ) स्वयं में क्रोधनिमित्त होने, न होने का चिन्तन-कोई क्रोध करे, या क्रोधावेश में अपशब्द कहे, तब उसके कारण को अपने में ढूँढ़ना । यदि दूसरे के क्रोध का कारण अपने में दिखाई दे तो यह सोचना कि भूल तो मेरी ही है, इसका कहना तो सत्य ही है। कदाचित् स्वयं में दूसरे के क्रोध का कारण वर्तमान में न दिखाई दे तो साधक यह सोचे कि यह बेचारा अज्ञान- . वश मेरी भूल निकाल रहा है।
क्षमावान पुरुष यह सोचे कि. अगर ये दुगुण मेरे अन्दर विद्यमान हैं तो मुझे इस व्यक्ति का एहसान मानना चाहिए कि यह मुझो सावधान कर रहा है। इसलिए इस पर क्रोध करना मूर्खता होगी, अगर निन्दक द्वारा कहे गये दूग्ण अपने अन्दर नहीं हैं तो सोचना चाहिए वास्तव में मेरे में ये दुगुण नहीं हैं तो इसके कहने से थोड़े ही मैं बुरा हो जाऊँगा ? अथवा यह सोचना चाहिए कि जिसके पास जैसी वस्तु है, वह वैसी ही देगा, दूसरी कहाँ से लाएगा? मेरे अन्दर यह दुगुण नहीं हैं तो मुझे उसके कहे हुए अपशब्दों को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
दूसरे के द्वारा कहे हुए अपशब्दों को सीधे रूप में ग्रहण करे तो वही सुख रूप बन जाएगा, जैसे-किसी ने कहा तू 'कर्महीन' या निकम्मा (निष्कर्म) है, तेरा खोज मिट जाए, तो क्षमावीर सोचे कि यह मुझे मोक्ष प्राप्त करने का आशीर्वचन कहता है, जो मोक्ष पाता है, वहो कर्महीन या निष्कर्म होता है, उसी का खोज मिटता है । कोई ‘साला' कहे तो सोचे कि मेरे लिए तो