________________
गुरु स्वरूप : १६७
इनके अनुसार यथायोग्य प्रवृत्ति करते-कराते हैं। वे सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग में अहर्निश पुरुषार्थ करते हैं और चतुर्विध संघ को इसमें पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देते हैं । वे स्वयं तप, संयम, ज्ञान-ध्यान, सदुपदेश आदि प्रत्येक धर्मवृद्धि के कार्य में समुद्यत रहकर मोहग्रस्त मनुष्यों को सावधान और जागृत करते है। उन्हें बोध देकर धर्मपथ पर अग्रसर करते हैं। चतुर्विध संघ को सद्बोध देकर धर्म और संघ का अभ्युदय करते हैं। धर्मकार्य में स्वयं प्रवृत्त होते हैं और दूसरों को प्रवृत्त करते हैं।
इस प्रकार आचार्य महाराज पांच प्रकार के आचार के पालन में समर्थ होते हैं।
पंच समितियों और त्रिगुप्तियों से युक्त - इसके अतिरिक्त आचार्य महाराज पांच समिति और तीन गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन माता के पक्के भक्त एवं निष्ठावान होते हैं । पांच समितियों और तीन गुप्तियों की व्याख्या पहले चारित्राचार में की जा चुकी है। उसी के अनुसार यहाँ समझ लेना चाहिए।
__ आचार्यश्री पूर्वोक्त छत्तीस गुणों ( ५ पंच इन्द्रियनिग्रह, ६ ब्रह्मचर्य की नव बाड़, ४ चार प्रकार की कषायों से मुक्त ५ पंच महाव्रतधारी, ५ पंचाचार के पालक और ८ अष्ट प्रवचन माताओं के आराधक) से युक्त होते हैं ।
आचार्य को छत्तीस विशेषताएँ जिनमें निम्नोक्त छत्तीस अर्हताएँ (गुण) विद्यमान हों, वे मुनिराज हो आचार्य पदवी के योग्य होते हैं, उन्हीं के द्वारा संघ का अभ्युदय और धर्म को प्रचार-प्रसार होता है
(१) आर्यदेशोत्पन्न-यद्यपि धर्माचरण में देश-कुलादिविशेष की कोई आवश्यकता नहीं होती, तथापि आर्यदेशोत्पन्न मानव प्रायः सुलभबोधि, धर्मसंस्कारी और गाम्भीर्यादि गुणों से विभूषित होता है; तथा परम्परागत आर्यत्व आत्मविकास में अत्यधिक सहायक होता है।
शास्त्रों में साढ़े पच्चीस आर्य देशों का निरूपण किया गया है। इनमें हो जिन, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेवादि आर्य-श्रेष्ठ पुरुषों का जन्म होता है। इसीलिए इन्हें आर्यदेश कहते हैं। अतः आर्यदेशोत्पन्न या देशार्य होना आचार्य की प्रथम अर्हता है।
(२) कुलसम्पन्न-जिसका पितृपक्ष निर्मल हो, उसे कुलसम्पन्न कहते