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गुरु स्वरूप : १३५ - टीपटाप करने में लगा रहता है, वह चिकने कर्म बाँधता है तथा घोर संसार सागर में ऐसा डूबता है कि फिर निकलना दुष्कर हो जाता है । "
आचार्य, ब्रह्मचर्य की प्रस्तुत ६ गुप्तियों ( बाड़ों) से अपने ब्रह्मचर्य की तथा संघ के साधु-साध्वियों के ब्रह्मचर्य की सुरक्षा करते हैं। संघ के आचार्य इस बात को भलीभाँति समझते हैं कि ब्रह्मचर्य की इन ६ गुप्तियों में से किसी एक भी गुप्ति ( बाड़) को भंग करने वाले ब्रह्मचारी के मन में शंका पैदा हो जाती है कि 'अब मैं ब्रह्मचर्य पालन करूँ या न करूँ ?' फिर उसके हृदय में भोगों के सेवन की कांक्षा (ललक) जाग उठती है । इतना ही नहीं, इस ब्रह्मचर्यपालन का फल मिलेगा या नहीं ? इस प्रकार की विचिकित्सा उसके मन में उत्पन्न हो जाती है । इन दोषों के फलस्वरूप वर्षों तक ब्रह्मचर्यं साधना से संचित आध्यात्मिक शक्ति की पूंजी को वह एक दिन में नष्ट कर डालता है, यानी वह भेद को प्राप्त हो जाता है । उसके तन और मन में कामोन्माद पैदा हो जाता है, जिसके कारण चिरकालस्थायी कास, श्वास, सुजाक, प्रमेह, क्षय, शूल, आदि भयंकर रोग उसे घेर लेते हैं । अन्तिम परिणाम यह होता है कि ऐसा व्यक्ति केवलीप्ररूपित संयम धर्म से भ्रष्ट होकर अनन्त काल तक संसार सागर में परिभ्रमण करता है ।
अतः आचार्य दृढ़ता से निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । अब्रह्मचर्य को वह अधर्म का मूल, महादोषों का स्रोत समझकर मन से भी पास में फटकते नहीं देते ।
चतुविधकवाय विजयो
आचार्य चार प्रकार के कषायों से सर्वथा मुक्त - कषायविजयी होता
१ (क) पणीयं भत्तपाणं च,
गायभूसणमिट्ठ च नरस्सत्त गवेसिस्स
अइमायं
कामभोगा
विस
पाणभोयणं ।
च दुज्जया ।
तालउड जहा ॥
(ख) विभूसावत्तियं भिक्खू संसारसायरे वोरे जेणं
- उत्तरा० अ० १६ गाथा १२-१३
कम्मं बंधइ चिक्कणं ।
पडइ
दुरुत्तरे ॥
}
२ तओणं तस्स "बंभचेरे संका वा, कंखा वा वा लभेज्जा, उम्माय वा पाउणिज्जा, केवलपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा ।''
- दशवैकालिक अ० ६, गाथा ६५ वितिगिच्छा वा समुप्पज्जज्जा, भे दीहकालिय वा रोगायक हवेज्जा,
- उत्तरा० अ० १६ सू० ३ से १२ तक