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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
न कसाए न अंविले न महुरे, न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे, न काए, न संगे, न रहे, न इत्थी न पुरिसे न णपुंसे।' ___ अर्थ-सिद्ध भगवान् न लम्बे हैं, न छोटे हैं, न वृत्त (गोल) हैं, न त्रिकोण है, न चौकोण हैं और न मण्डलाकार हैं। वे काले नहीं हैं, हरे नहीं, हैं, लाल नहीं हैं, पीले नहीं है और सफेद भी नहीं हैं। वे न. सुगन्ध रूप है और न दुर्गन्ध रूप हैं। वे न तीखे है, न कड़वे हैं, न कपैले है, न खट्टे हैं और न मीठे हैं। वे न कठोर हैं, न कोमल है, न भारी है, न हल्के । वे न ठण्डे है, न गरम हैं, न चिकने हैं, न रूखे हैं। उनके शरीर नहीं है। वे संसार में फिर जन्म नहीं लेते हैं । वे सर्व संग रहित हैं अर्थात् अमूर्त हैं। वे न स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न नपुसंक हैं।
वे कैसे हैं ? इसके लिये शास्त्रकार कहते हैं
परिणे, सण्णे । उवमा ण विज्जइ । अरूवी सत्ता। अपयस्स पयं णत्थि।
भावार्थ-वे विज्ञाता हैं, ज्ञाता है अर्थात् अनन्त ज्ञान दर्शन सम्पन्न हैं। वे अनन्त सुखों में विराजमान हैं। उनके ज्ञान और सुख के लिये कोई उपमा नहीं दी जा सकती क्योंकि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसके साथ उनके ज्ञान और सुख की उपमा घटित हो सके। वे अरूपी हैं । उनका स्वरूप शब्दों द्वारा कहा नहीं जा सकता। (उत्तराध्ययन अ० ३१) (प्रवचन सारोद्धार दार २७६) (समवायांग ३१) (अाचारांग श्रुत० १ अ०५उ०६) (हरिया प्रतिक्रमणाध्ययन) ६६२-साधु की ३१ उपमाएं
(१) उत्तम स्वच्छ कांस्य पात्र जैसे जल मुक्त रहता है-पानी उस पर नहीं ठहरता-उसी प्रकार साधु स्नेह से मुक्त होता है।