Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 165
________________ . । २१२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला दायी होते हैं किन्तु वीतराग पुरुष को ये विषय कभी थोड़ा सा भी दुःख नहीं देते। (उत्तगध्ययन बत्तीसवा अध्ययन गाया १००) २६-रसना (जीम) का संयम रसा पगामंन निसेवियव्वा,पायं रसादित्तिकरा नराणं। वित्तंच कामासमभिद्दवन्ति,दुमं जहासाउफलं व पक्खी भावार्थ-घृत मादि रसों का अधिक मात्रा में सेवन,नहीं करना चाहिये क्योंकि प्रायः रस मनुष्यों में काम का उद्दीपन करते हैं । उद्दीप्त मनुष्य की ओर कामवासनाए' ठीक वैसे ही दौड़ी आती है, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी दौड़े आते हैं। (उत्तराध्ययन सोलहवां अध्ययन गाथा ७) पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्ढणं। बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवज्जए ॥२॥ भावार्थ-पौष्टिक रसीला भोजन विषय वासना को शीघ्र ही उत्तेजित करता है । अतएव ब्रह्मचारी साधु को इसका सदा त्याग करना चाहिये। (उचराध्ययन सोलहवां श्र० गाथा ७) जे मायरं च पियरं च हिच्चा,गारं तहा पुत्त पसुंधणं च। कुलाई जोधावइ साउगाई,अहाहु से सामणियस्स दूरे॥ भावार्थ-माता, पिता, पुत्र परिवार. घर, पशु और धन का त्याग कर सयम अङ्गीकार करके भी जो स्वादवश स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में भिक्षा के लिये जाता है वह साधुत्व से बहुत दूर है। (सूयगडांग सातवा अध्ययन गाथा ६३) से भिक्खू वा सिक्खुणी वा असणं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओदाहिणंहणुयंसंचारना आसा

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