Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 192
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग २५१ के साथ मैत्री भाव है। किसी के भी साथ मेरा वैर भाव नहीं है। (श्रावश्यक सूत्र ) जं जं मणेण वद्धं, जं जं वायाए भासिअं पावं । जं जं कारण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ||४|| भावार्थ - मन, वचन और शरीर से मैंने जो पाप किये हैं मेरे वे सब पाप मिथ्या हों । आयरिए उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल गणे अ । जे मे केह कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ ५ ॥ भावार्थ - श्राचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गया के प्रति मैंने जो क्रोधादि कयायपूर्वक व्यवहार किया है उसके लिये मैं मन वचन और काया से क्षमा चाहता हूँ । सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलि करीअ सीसे । सव्वं खमावड़ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ६ ॥ भावार्थ- मैं नतमस्तक हो, हाथ जोड़कर पूज्य श्रमण संघ से सभी अपराधों के लिये क्षमा चाहता हूँ और उनके अपराध भी मैं क्षमा करता हूं । ( मरणसमाचिप्रकीर्णक गाथा ३३५, ३३६) (संस्तारक प्रकीर्णक गाथा १०४, १०५) सव्बस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्म निहिअ निअचित्तो । सव्वे खमावत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ ७ ॥ भावार्थ-धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मैं सद्भावपूर्वक सब जीवों से अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगता हूँ और उनके सब प राधों को मैं भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता हूँ । ( संस्तारक प्रकीर्णक गाथा १०६ )

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210