Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 185
________________ २४४ श्री सैठिया जैन ग्रन्थमाला सुवण्ण रुप्पस्स उपव्यया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। णरस्स लद्धस्स ण तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥६। भावार्थ-कैलाश पर्वत के समान सोने चाँदी के असंख्यात पर्वत भी हों तो भी लोभी मनुष्य का मन नहीं भरता । सच है, भाकाश की तरह इच्छा का भी अन्त नहीं है। पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह। पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विजा तवं चरे ॥७॥ भावार्थ शालि, जब आदि धान्य, सोना, चाँदी आदि धन ' तथा पशुओं से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी एक मनुष्य की इच्छा तृप्स करने के लिये भी पर्याप्त (पूरी) नहीं है। यह जान कर तप ही का प्राचरण करना चाहिये । (उत्तराध्ययन नयां श्र० गाथा ४८, ४६) ४०-शल्य रागद्दोसामिहया, ससल्लमरणं मरंति जे मूढ़ा। ते दुक्ख सल्ल बहुला,भमंति संसार कांतारे ॥१॥ भावार्थ--रागद्वेष से अभिभूत जो मूढ़ प्राणो शल्य सहित मरते हैं वे विविध दुःख रूप शल्यों से पीड़ित होकर संसार रूप अटवी में परिभ्रमण करते हैं। (मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा ५१) सुहुमंपि भावसलं अणुरित्ता उ जे कुणइ कालं। लज्जाइ गारवेण य, न हु सो आराहओ भणिओ.॥२॥ भावार्थ- लज्जा अथवा गारव के कारण जो सूक्ष्म भी भाव

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