Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग २२६ असासए सरीरम्मि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेण चुचुय सन्निभे ॥५॥ भावार्थ-यह शरीर पानी के बुलबुले के समान चणभंगुर है, पहले या पीछे एक दिन इसे छोड़ना ही पड़ता है। यही कारण है कि विविध भोग सामग्री के सुलभ होते हुए भी इस अशाश्वत देह में मैं जरा भी सुख अनुभव नहीं करता। माणुस्सत्ते असारम्मि, वाहिरोगाण आलए । जरामरण घम्मि , खणं पि न रमामि हं ॥६॥ भावार्थ-यह मानव शरीर असार है.व्याधि और रोगों का घर है तथा जरा और मरण से पीड़ित है। इसमें मैं क्षणभर भी आनन्द नहीं पाता । (उचराध्ययन उन्नीसवां अ० गाथा १२, १३,१४) नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमक्खिया । पियरोवि तहा पुत्ते, बंधू रागं ! तवं चरे ॥७॥ भावार्थ-पिता के वियोग से अत्यन्त दुखित हुए भी पुत्र मृत पिता को घर से बाहर निकाल देते हैं और इसी प्रकार पिता भी मृत पुत्रों को घर से अलग कर देता है। बन्धुजन भी मृत बन्धु के साथ यही व्यवहार करते हैं । इस प्रकार संसार के सम्बन्धी को कच्चा समझ कर हे राजन् ! तप का आचरण करो। तओ तेणजिए दव्वे, दारे य परिरक्खिए । ' कीलंतन्ने नरा रागं, हट्ट तुट्ठ मलंकिया ॥८॥ भावार्थ-इसके बाद मृत व्यशि द्वारा उपार्जित धन से एवं हर तरह से रक्षा की गई उसकी त्रियों के साथ दसरे योग दृष्ट, तुष्ट

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210