Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
समझते कि विश्व रागद्वेषरूप अग्नि से जल रहा है और हमें इस अग्नि से बचने का प्रयत्न करना चाहिये।
(उत्तराध्ययन चौदहवा अध्ययन गाथा ४२, ४३) न वितं कुणई अमित्तो सुटु विय विराहिओसमत्थो वि। जं दो वि अणिग्गहीया, करंति रागो य दोसो य ॥४॥
भावार्थ-समर्थ शत्रु का भी कितना ही विरोधक्यों न किया जाय फिर भी वह आत्मा का उतना अहित नहीं करता जितना कि वश नहीं किये हुए राग द्वेष करते हैं । (मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १६८) नकाम भोगा समयं उविंति,न यावि भोगा विगइंउर्विति जेतप्पओसीय परिग्गही य, सोतेसु मोहा विगइंउवेइ ।।
भावार्थ-कामभोग अपने आप न तो किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में विकार भाव ही उत्पन्न करते हैं । किन्तु जो मनुष्य उनसे राग या द्वेष करता है वही मोह के वश होकर विकारभाव प्राप्त करता है। (उत्तराध्ययन अ० ३२ गाथा १०१)
जायख्वं जहामट्ठ, निद्धतमल पावगं । रागदोस भवातीतं, तं वयं वूम माहणं ॥६॥
भावार्थ:-जो कसौटी पर कसे हुए एवं अग्नि में डालकर शुद्ध किये हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। उत्तराभ्ययन १० पच्चीसवा गाथा २१) गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू,
गिएहाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं,
जो राग दोसेहिं समो स पुज्जो ॥७॥ .

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