Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 172
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग २१६ उसी प्रकार भुक्त भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता । (उत्तराध्ययन उन्नीसवां श्र० गाथा १७ ) जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्मेण य भुजमाणा । ते खुद्दए जीविय पञ्चमाणा, एसोवमा कामगुणा विवागे |५| भावार्थ - जैसे किंपाक फल रूप रंग और रस की दृष्टि से शुरू में खाते समय बड़े मोहर मालूम होते हैं किन्तु पचने पर वे इस जीवन ही का नाश कर देते हैं। इसी प्रकार कामभोग भी बड़े आकर्षक और सुखद प्रतीत होते हैं पर विपाक काल में वे सर्वनाश कर देते हैं । (उत्तराध्ययन बत्तीसवां अध्ययन गाथा २०) खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा अनिगाम सुक्खा । संसार मुक्खस्स विपक्ख भूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ ६ ॥ भावार्थ - कामभोग क्षण मात्र सुख देने वाले हैं और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं। उनमें सुख बहुत थोड़ा है पर अतिशय दुःख ही दुःख है । ये कामभोग मोक्ष सुख के परम शत्रु हैं एवं अनर्थों की खान हैं । ( उत्तराध्ययन चौदहवा० गाथा १३) कामा दुरतिक्कमा, जीविय दुष्पडिवूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिसे से सोयह जूरह तिप्पड़ पिट्टइ परितप्पड़ ॥ भावार्थ - इच्छा और मोग रूप कामों का नाश करना अति कठिन है। यह जीवन भी नहीं बढ़ाया जा सकता। ( अतएव कभी प्रेमाद न करना चाहिये । ) कामभोगों की कामना करने चाला श्रात्मा उनके प्राप्त न होने पर या उनका वियोग होने पर शोक करता है, खिन्न होता है, मर्यादा भंग करता है, पीड़ित होता है एवं परिताप करता है । ( आचाराग दूसरा ० पांचवां उ० सूत्र ६३ )

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