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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवां भाग
अर्थ-सिद्ध भगवान् ने पाँच संस्थान, पाँच वरण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, तीन वेद एवं काय, संग और रुह (पुनरुत्पत्ति) का तय किया है । इनके तय से उन में इकतीस गुण होते हैं
परिमण्डल, वृत्त, ज्यत्र, चतुरस्र और आयात ये पाँच संस्थान हैं। सफेद, पीला, लाल, नीला और काला ये पाँच वर्ण हैं । गन्ध के दो भेद हैं-सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, । तीखा, कड़वा, कपैला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं। गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण स्निग्ध और रूक्ष ये आठ स्पर्श हैं। स्त्री, वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद ये तीन वेद हैं। सिद्ध भगवान् में इन अट्ठाईस बोलों का अभाव होता है। शेष तीन गुण इस प्रकार हैं- प्रौदारिक आदि पाँच शरीरों में से कोई भी शरीर सिद्ध अवस्था में नहीं रहता, इसलिये सिद्ध भगवान् काय रहित अर्थात् अशरीरी हैं । बाह्य और आभ्यन्तर संग रहित होने से वे असङ्ग (निःसङ्ग) कह. लाते हैं। सिद्ध हो जाने के बाद वे फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेते इसलिये वे 'रूह' कहलाते हैं। संसार के कारणभूत आठ कर्मों का सर्वथा दाय हो जाने से पुनः संसार में उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं है। कहा भी है
दरचे वीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मवीजे तथा दग्घे, न रोहति भवांकुरः ||
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अर्थ - जिस प्रकार बीज के जल जाने पर अंकुर पैदा नहीं होता उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने पर संसार रूपी अंकुर पैदा नहीं होता |
सिद्ध भगवान् के उक्त गुण आचाराङ्ग मूत्र में इस प्रकार हैं'से न दीहे न हस्से न वट्टे न तसे न चउरंसे न परिमण्डले, न किण्हे न णीले न लोहिए न हालिदे न सुक्कले, न सुभगंधे न दुग्भिगंधे, न तित्ते न कडुए