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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग १८३ भावार्थ-सारे लोक में सभी जीवों के परिग्रह जैसा कोई पाश (वन्ध) एवं प्रतिवन्ध नहीं है । (प्रश्नव्याकरण पाचवा अधर्म द्वार सूत्र १६ ण पडिन्नविजासयणासणाइं,सिजनिसिज्जं तह भत्तपाणं गामे कुले वा नगरेव देसे,ममत्तभावं न कहिं पि कुन्जा ॥९॥
भावार्थ-साधु को चाहिये कि मासकल्पादि पूरा होने पर विहार करते समय शयन, आसन, निपद्या (स्वाध्यायभूमि) एवं भक्त पान के सम्बन्ध में गृहस्थ को यह प्रतिज्ञा न करावे कि वापिस आने पर उक्त वस्तुएं मुझे ही देना। ग्राम,कूल, नगर एवं देश में कहीं भी साधु को उपकरणादि पर ममत्व भाव न रखना चाहिये।
(दशवकालिक दूसरी चूलिका गाथा ८) जे ममाइयमति जहाति, से जहाइ ममाइतं । से हु दिट्टपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइतं ॥१०॥
भावार्थजो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है वह स्वीकृत परिग्रह का त्याग करता है। जिसके ममत्व एवं परिग्रह नहीं है उसी मुनि ने ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को जाना है।
(श्राचारांग दूसरा अध्ययन छठा उद्देशा सूत्र ६६ ) उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे,
__ अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसंनिहीओ विरए,
सव्वसंगावगए अ जे स भिक्खू ॥११॥ भावार्थ-जो साधु वस्त्र पात्रादि संयम के उपकरणों में मूर्छा एवं गृद्धिभाव का त्याग करता है, अज्ञात कुलों से थोड़ी थोड़ी शुद्ध भिक्षा लेता है, संयम को असार वनाने वाले दोषों से तथा क्रय, विक्रय और संचय से दूर रहता है एवं सभी द्रव्य भाष