Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 153
________________ श्री जन सिद्धान्त बोज संग्रह, सातवा भाग १८६ भावार्थ-जो अभाव या पराधीनता के कारण विवश हो वख, गन्ध, आभूषण, स्त्री,शय्या आदि भोग सामग्री का उपभोग नहीं करता वह त्यागी नहीं है। दशवकालिक दूसग अ० गाथा ३, २) १६-वमन किये हुए को ग्रहण न करना पक्खंदे जलिय जोई, धूमकेउ'दुरासयं। नेच्छन्ति वंतयं भो,कुले जाया अगंधणे ॥१॥ भावार्थ-अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प जलती हुई दु:मह अग्नि में कूद पड़ते हैं किन्तु वमन किये हुए विष का पान करने की इच्छा तक नहीं करते। घिरत्यु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। नंतं इच्छसि आवेउ, सेयं ते मरणं भवे ॥ २ ॥ भावार्थ-हे अपयश के चाहने वाले ! तुम्हें धिकार है जो तुम असंयम जीवन के लिये वमन किये हुए भोगों को वापिस ग्रहण करना चाहते हो। इस अकार्य को करने की अपेक्षा तुम्हारा मर जाना बेहतर है। (दशवकालिक दूसरा अ० गाथा ६-७) नंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिचत्तं, धणमादाउमिच्छसि ॥३॥ भावार्थ-हे राजन् ! आप ब्राह्मण से छोड़े हुए धन को ग्रहण करना चाहते हैं। पर आपको यह मालूम होना चाहिये कि वमन की हुई वस्तु को खाने वाले की प्रशंसानहीं,परन्तु निन्दाही होती है।. (उत्तराध्ययन चौदहवां अ० गाथा ३८) जह तं तु अभोज,भत्तं जइविय सुसक्कयंआसि। एवमसंजमवमणे, अणेसणिज्ज अभोज्जं तु ॥४॥

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