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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग एस धम्मे धुवे निचे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेणं, सिज्झिस्सन्ति तहावरे॥१६॥ __ भावार्थ -यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्र व है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इसका आचरण कर पूर्वकाल में कितने ही जीव सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में होंगे।
(उत्तराध्यन सोलहवा अध्ययन गाथा १६, १५) १४-अपरिग्रह-परिग्रह का त्याग न ते संनिहिमिच्छन्ति, नायवृत्तवओरया ॥१॥
भावार्थ-ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के प्रवचन में रत रहने वाले साधु किसी भी वस्तु का संग्रह करने की इच्छा तक नहीं करते। लोहस्सेस अणुप्फासे, सन्ने अन्नयरामवि । जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पब्वइए न से ॥२॥
भावार्थ--मेरे मतानुसार थोडासा भी संग्रह करना, यह लोभ का परिणाम है । यदि साधु कभी भी संग्रह की इच्छा करता है तो वह गृहस्थ ही है पर साधु नहीं।
जं पि वत्थं व पायं वा, कंवलं पायपुंछणं । तपि संजम लजट्ठा, धारंति परिहरं ति य ॥३॥
भावार्थपरिग्रह रहित मुनि जो भी वस्त्र,पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएं रखते हैं वे एकमात्र संयम की रक्षा के लिये हैं एवं अनासक्ति भाव से वे उनका उपभोग करते हैं। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । ।