________________
श्री - सेठिया जैन ग्रन्थमाला
विषयों में प्रवृत्त होकर ये लोग जीव हिंसा के अनेक कार्य करते हैं। इसलिए ये दुःख से, कर्म से छुटकारा नहीं पाते ।
(४) मृत सम्बन्धी के दाह संस्कार आदि क्रियाकर्म करके विषयलोलुप स्वजन तथा अन्य जाति के लोग उसके दुःख से कमाये हुए धन के स्वामी बन कर मौज करते हैं । किन्तु पाप कर्मों से धन संचय करने वाला वह व्यक्ति अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप अनेक दुःख भोगता है ।
६८
(५) माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, पुत्रवधू तथा अन्य स्वजन सम्बन्धी - कोई भी अपने अशुभ कर्मों का फल भोगते हुए प्राणी की दुःख से रक्षा नहीं कर सकते ।
(६) स्वजन सम्बन्धी स्वार्थी हैं, ये प्राणी को दुःख से छुड़ाने में समर्थ हैं। इसके विपरीत सम्यग्दर्शन आदि जीव को सदा के लिये दुःख से मुक्त कर मोक्ष प्राप्त कराने वाले हैं। यह जान कर साधु को ममता एवं भाव का त्याग करते हुए जिनोक्त संयम मार्ग का आचरण करना चाहिये ।
(७) संसार की वास्तविकता जानने वाले आत्मा को चाहिये कि वह धन, पुत्र, ज्ञाति और परिग्रह को छोड़ दे । कर्म बन्ध के आन्तरिक कारण मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय आदि का भी उसे त्याग कर देना चाहिये और धन धान्य पुत्र आदि की अपेक्षा न करते हुए उसे संयमानुष्ठान का पालन करना चाहिये ।
.
(८) पृथ्वीकाय, अष्काय, निकाय, वायुकाय, वृण वृक्ष बीज रूप वनस्पतिकाय और त्रसकाय ये छः काय हैं । अण्डज, पोतम, जरायुज, रसज, संस्वेदज और उद्भिज-ये सकाय के भेद हैं ।
(६) विद्वान् पुरुष को छः काय के इन जीवों का स्वरूप जान कर मन वचन काया से इनकी हिंसा छोड़ देनी चाहिये । आरम्भ परिग्रह में हिंसा होती है, इसलिये इनका भी त्याग करना चाहिये ।
L